134. राग गौरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग गौरी

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आपु गए हरुएँ सूनैं घर ।

सखा सबै बाहिर ही छाँड़े, देख्यौ दधि-माखन हरि भीतर ॥

तुरत मथ्यौ दधि-माखन पायौ, लै-लै खात, धरत अधरनि पर ।

सैन देइ सब सखा बुलाए, तिनहि देत भरि-भरि अपनैं कर ॥

छिटकि रही दधि-बूँद हृदय पर, इत उत चितवत करि मन मैं डर ।

उठत ओट लै लखत सबनि कौं, पुनि लै कात लेत ग्वालनि बर ॥

अंतर भई ग्वालि यह देखति मगन भई, अति उर आनँद भरि ।

सूर स्याम-मुख निरखि थकित भइ,कहत न बनै, रही मन दै हरि ॥

भावार्थ / अर्थ :– श्याममसुन्दर स्वयं धीरेसे सूने घरमें गुस गये, सभी सखाओंको बाहर ही छोड़ दिया; वहाँ भीतर उन्होंने दही और मक्खन देखा । तुरंत मथे हुए दहीसे निकला मक्खन वे पा गये । उसे उठा-उठाकर होंठोपर रखने और आरोगने लगे । (फिर) संकेत करके सब सखाओंको बुला लिया,उन्हें भी अपने हाथोंमें भर भरकर देने लगे । वक्षःस्थल पर दही की बूँदें छिटक रही हैं । मनमें भय करके इधर-उधर देखते भी जाते हैं । सखाओं की आड़ लेकर उठते हैं और सबको देख लेते हैं (कि कोई कहींसे देखती तो नहीं ) फिर मक्खन लेकर खाते हैं, इन श्रेष्ठ (बड़भागी) गोपबालकों के हाथ से भी लेते हैं । छिपी हुई गोपी यह सब देख रही है । उसके हृदय में अत्यन्त आनन्द भर रहा है, वह मग्न हो रही है । सूरदासजी कहते हैं–श्यामसुन्दरके मुखको देखकर वह थकित (निश्चेष्ट) हो रही है, उससे कुछ कहते (बोलते) नहीं बनता, श्यामसुन्दरको उसने अपना मन अर्पित कर दिया है ।