119. राग धनाश्री – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग धनाश्री

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अहो नाथ ! जेइ-जेइ सरन आए तेइ तेइ भए पावन ।

महापतित-कुल -तारन, एकनाम अघ जारन, दारुन दुख बिसरावन ॥

मोतैं को हो अनाथ, दरसन तैं भयौं सनाथ देखत नैन जुड़ावन ।

भक्त हेतदेह धरन, पुहुमी कौ भार हरन, जनम-जनम मुक्तावन ॥

दीनबंधु, असरनके सरन, सुखनि जसुमति के कारन देह धरावन ।

हित कै चित की मानत सबके जियकी जानत सूरदास-मन-भावन ॥

भावार्थ / अर्थ :– ‘हे स्वामी ! जो जो आपकी शरण आये, वे सब परम पवित्र हो गये । आपका एक ही नाम (आपके नामका एक बार उच्चारण) ही महान् पतितोंके भी कुलका उद्धार करनेवाला, पापोंको भस्म करनेवाला तथा कठिन-से-कठिन दुःख को विस्मृत करा देनेवाला है। मेरे समान अनाथ कौन था; किंतु आपके दर्शनसे मैं सनाथ हो गया, आपका दर्शन ही नेत्रोंको शीतल करनेवाला है। आप भक्तोंका मंगल करने, पृथ्वीका भार दूर करने एवं (अपने भक्तोंको) जन्म-जन्मान्तरसे छुड़ा देनेके लिये अवतार धारण करते हैं ।दीनबंधु! आप अशरणको त्राण देनेवाले हैं, सुखमयी यशोदाजौ के लिये आपने यह अवतार धारण किया है । आप सबके चित्तके प्रेम-भावका आदर करते हैं, सबके मनकी बात जानते हैं, सूरदास जी कहते हैं – मेरे मनभावन आप ही हैं।