116. राग धनाश्री – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग धनाश्री

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महराने तैं पाँड़े आयौ ।

ब्रज घर-घर बूझत नँद-राउर पुत्र भयौ, सुनि कै, उठि धायौ ॥

पहुँच्यौ आइ नंद के द्वारैं, जसुमति देखि अनंद बढ़ायौ ।

पाँइ धोइ भीतर बैठार््यौ, भौजन कौं निज भवन लिपायौ ॥

जो भावै सो भोजन कीजै, बिप्र मनहिं अति हर्ष बढ़ायौ ।

बड़ी बैस बिधि भयौ दाहिनौ, धनि जसुमति ऐसौ सुत जायौ ॥

धेनु दुहाइ, दूध लै आई, पाँड़े रुचि करि खीर चढ़ायौ ।

घृत मिष्ठान्न, खीर मिश्रित करि, परुसि कृष्न हित ध्यान लगायौ ॥

नैन उघारि बिप्र जौ देखै, खात कन्हैया देखन पायौ ।

देखौ आइ जसोदा ! सुत-कृति, सिद्ध पाक इहिं आइ जुठायौ ॥

महरि बिनय करि दुहुकर जो रे, घृत-मधु-पय फिरि बहुत मँगायौ

सूर स्याम कत करत अचगरी, बार-बार बाम्हनहि खिझायौ ॥

भावार्थ ;— श्रीयशोदाजी के मायकेसे एक ब्राह्मण (गोकुल) आये । व्रजके घर-घर वे नन्दरायजी के महलका पता पूछ रहे थे और यह सुनकर कि उनके पुत्र हुआ है वे दौड़े आये थे । (शीघ्र ही) वे श्रीनन्दजी के द्वारपर आ पहुँचे । उन्हें देखकर माता यशोदाको बड़ा आनन्द हुआ । उनके चरण धोकर घरके भीतर उन्हें बैठाया और उनके भोजनके लिये अपना निजी कमरा लिपवा दिया । फिर बोलीं- ‘आपकी जो इच्छा हो, वह भोजन बना लें । यह सुनकर विप्रका मन अत्यन्त हर्षित हुआ । वे बोले-‘बहुत अवस्था बीत जानेपर विधाता अनुकूल हुए; यशोदाजी! तुम धन्य हो जो ऐसा (सुन्दर) पुत्र तुमने उत्पन्न किया ।’ (यशोदाजी) गाय दुहवाकर दूध ले आयीं, ब्राह्मणने बड़ी प्रसन्नतासे खीर बनायी । घी, मिश्री मिलाकर खीर परोसकर भगवान् कृष्णको भोग लगानेके लिये ध्यान करने लगे । फिर जब नेत्र खोलकर ब्राह्मण देवताने देखा तो कन्हाई भोजन करते दिखलायी पड़े । (वे बोले -) ‘यशोदाजी! आकर अपने पुत्रकी करतूत (तो) देखो इसने बना-बनाया भोजन आकर जूठा कर दिया । व्रजरानी ने दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना की (कि बालक को क्षमा करें और दुबारा भोजन बना लें) । फिर बहुत-सा घी, मिश्री, दूध मँगा दिया । सूरदासजी (के शब्दोंमें यशोदाजी कृष्ण से) कहती हैं – श्यामसुन्दर! यह लड़कपन क्यों करते हो ? बार -बार तुमने ब्राह्मणको खिझाया (तंग किया) है ।