श्री उद्धव के मथुरा से ब्रज जाते समय के मार्ग के कवित्त
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आइ ब्रज-पथ रथ ऊधौ कौं चढ़ाइ कान्ह अकथ कथानि की ब्यथा सौं अकुलात हैं ।
कहै रतनाकर बुझाइ कछु रोकैं पाय पुनि कछु ध्याइ उर धाइ उरझात हैं ।।
रससि उसाँसनि सौं बहि बहि आँसनि सौं भूरि भरे हिय के हुलास न उरात हैं ।
सीरे तपे विबिध सँदेसनि बातनि की घातनि की झोंक मैं लगेई चले जात हैं ।।
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लै कै उपदेस-औ-सँदेस-पन ऊधौ चले शुजस-कमाइबैं उछाह-उदगार मैं ।
कहै रतनाकर निहारि कान्ह कातर पै आतुर भए यौं रह्यौ मन न सँभार मैं ।।
ज्ञान-गठरी की गाँठि छरकि न जान्यौ कब हरैं-हरैं पूँजी सब सरकि कछार मैं डार मैं तमालनि की कछु बिरमानी अरु कछू अरुझानी है करीरनि के झार मैं ।।
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हरैं-हरैं ज्ञानके गुमान घटि जानि लगे जोग के विधान ध्यान हूँ तैं टरिबैं लगे ।
नैननि मैं नीर रोम सकल शरीर छयौ प्रेम-अद्भुत-सुख सूझि परिबै लगे ।।
गोकुल के गाँव की गली मैं पग पारत हीं भूमि कैं प्रभाव भाव औरे भरिबै लगे ।
ज्ञान-मारतंड के सुखाए मनु मानस कौं
सरस सुहाये घनस्याम करिबै लगे ।।
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