उध्दव जी के कवित्त

श्री उध्दव को मथुरा से ब्रज भेजते समय के कवित्त ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ 1 न्हात जमुना मैं जलजात एक देख्यौ जात जाकौ अध-ऊरध अधिक मुरझायौ है । कहै रतनाकर उमहि गहि स्याम ताहि बास-बासना सौं नैंकु नासिका लगायौ है ।। त्यौंहीं कछु घूमि झूमि बेसुध भए कै हाय पाय परे उखरि अभाय मुख छायौ है । पाए घरी द्वैक मैं जगाइ ल्याइ ऊधौ तीर

राधा -नाम कीर जब औचक सुनायौ है ।।

2 आए भुज-बंध दए ऊधव-सखा कैं कंध डग डग पाय मग धरत धराए हैं । कहै रतनाकर न बूझैं कछु बोंलत औ खौलत न नैन हूँ अचैन चित छाए हैं ।। पाइ बहे कंज मैं सुगंध राधिका कौ मंजु ध्याए कदली-बन मतंग लौं मताए हैं । कान्ह गए जमुना नहान पै नए सिर सौं नीकैं तहाँ नेह की नदी मैं न्हाइ आए हैं ।।

3 देखि दूरि ही तैं दौरि प पौरि लगि भेंटि ल्याइ आसन दै साँसनि समेटि सकुचानि तैं । कहै रतनाकर यौं गुनन गुबिंद लागे जौलौं कछू भूले से भ्रमे से अकुलानि तैं ।। कहा कहैं ऊधौ सौं कहैं हूँ तौ कहाँ लौं कहैं कैसें कहैं कहैं पुनि कौन सी उठानि तैं । तौलौं अधिकाई तै उमगि कंठ आइ भिंचि नीर ह्वै बहन लागी बात अँखियानि तैं ।।

4 बिरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा कहत बनै न जौ प्रबीन सुकबीनि सौं । कहै रतनाकर बुझावत लगे ज्यौं कान्ह ऊधौ कौं कहन-हेत ब्रज-जुवतीनि सौं ।। गहबरि आयौं गरौ भभरि अचानक त्यौं प्रेम पर््यो चपल चुचाइ पुतरीनि सौं । नैं कु कही बैननि, अनेक कही नैननि सौं, रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनि सौं ।।

5 नंद औ जसोमति के प्रेम-पगे पालन की लाड़-भरे लालन की लालच लगावती । कहै रतनाकर सुधाकर-प्रभा सौं मढ़ी मंजु मृगनैनिनि के गुन-गन गावती ।। जमुना-कछारनि की रंग-रस-रारनि की बिपिनि-बिहारनि की हौंस हुमसावती । सुधि ब्रज-बासनि दिवैया सुख-रासनि की ऊधो नित हमकौं बुलावन कौं आवती ।।

6 चलत न चारयौ भाँति कोटिनि बिचार््यौ तऊ दाबि दाबि हार््यौ पै न टार््यौ टसकत है । परम गहीली बसुदेव-देवकी की मिली चाह-चिमटी हूँ सौं न खैंचौ खसकत है ।। कढ़त न क्यौं हूँ हाय बिथके उपाय सबै धीर-आक-छीर हूँ न धारैं धसकत है । ऊधौ ब्रज-बास के बिलासनि कौ ध्यान धँस्यौ निसि-दिन काँटे लौं करेजैं कसकत है ।।

7 रूप रस पीवत अघात ना हुते जो तब सोई अब आँसू ह्वै उबरि गिरिबौ करैं । कहै रतनाकर जुड़ात हुते देखैं जिन्हैं याद किएँ तिनकौं अँवाँ सौं घिरबौ करैं ।। दिननि के फेर सौं भयौं है हेर-फेर ऐसौ जाकौं हेर फेरि हेरिबौई हिरिबौ करैं । फिरत हुते जु जिन कुंजन मैं आठौ जाम नैननि मैं अब सोई कुंज फिरबौ करैं ।।

8 गोकुल की गैल-गैल गैल-गैल ग्वालिन की गोरस कैं काज लाज-बस कै बहाइबौ । कहै रतनाकर रिझाइबौ नवेलिनि कौं गाइबौ गवाइबौ औ नाचिबौ नचाइबौ ।। कीबौ स्रमहार मनुहार कै बिबिध बिधि

मोहिनी मृदुल मंजु बाँसुरी बजाइबौ ।। ऊधौ सुख-संपति-समाज ब्रज-मंडल के भूलैं हूँ न भूलैं भूलैं हमकौ भुलाइबौ ।।

9 मोर के पखौवनि कौ मुकुट छबीली छोरि क्रीट मनि-मंडित धराई करिहैं कहा । कहै रत्नाकर त्यौं माखन-सनेही बिनु षट-रस ब्यंजन चबाई करिहैं कहा ।। गोपी ग्वाल-बालनि कौं झौंकि बिरहानल मैं हरि सुर-बृंद की बलाइ करिहैं कहा ।

यारौ नाम गोविंद गुपाल कौ बिहाइ हाय ठाकुर त्रिलोक के लहाइ करिहैं कहा ।।

10 कहत गुपाल माल मंजु मनि-पुंजनि की गुंजनि की माल की मिसाल छबि छावै ना । कहै रतनाकर रतन-मैं किरीट अच्छ मोर-पच्छ-अच्छ-लच्छ-अंसहू सु-भावै ना ।। जसुमति मैया की मलैया अरु माखन कौ काम-धेनु-गोरस हूँ गूढ़ गुन पावै ना । गोकुल की रज के कनूका औ तिनूका सम संपति त्रिलोक की बिलोकन मैं आवै ना ।।

11 राधा-मुख-मंजुल-सुधाकर के ध्यान ही सौं प्रेम-रतनाकर हियैं यौं उमगत है । त्यौंही बिरहातप प्रचंड सौं उमंडि अति ऊरध उसास कौ झकोर यौं जगत है ।। केवट विचार कौ विचारौ पचि हारि जात होत गुन-पाल ततकाल नभ-गात है । करत गँभीर धीर-लंगर न काज कछू मन कौ जहाज डगि डूबन लगत है ।।

12 सील-सनी सुरुचि सु-बात चलै पूरब की औरै ओप उमगी दृगानि मिदुराने तैं । कहै रतनाकर अचानक चमक उठी उर घनस्याम कैं अधीर अकुलाने तैं ।। आसाछन्न दुरदिन दीस्यो सुरपुर माहिं ब्रज मैं सुदिन बारि-बृंद हरियाने तैं । नीर कौ प्रबाह कान्ह-नैननि कैं तीर बाह्यो धीर बाह्यौ ऊधौ-उर अचल रसाने तैं ।।

13 प्रेम भरी कातरता कान्ह की प्रगट होत ऊधव अवाइ रहे ज्ञान-ध्यान सरके ।। कहै रतनाकर धरा कौ धीर धूरि भयौ भूरि-भीति-भारनि फनिंद-फन करके ।। सुर सुर-राज सुद्ध-स्वारथ-सुभाव-सने

संसय समाए धाए धाम बिधि हर के । आई फिरि ओप ठाम-ठाम ब्रज-गामनि के बिरहिनि बामनि के बाम अंग फर के ।।

14 हेत-खेत माहिं खोदि खाई सुद्धस्वारथ की प्रेम-तृन गोपि राख्यौ तापै गमनौ नहीं । करनी प्रतीत-काज करनी बनावट की राखी ताहि हेरि हियँ हौंसनि सनौ नहीं ।। घात मैं लगे हैं ये बिसासी ब्रजबासी सबै इनके अनोखे छल-छंदनि छनौ नहीं । बारनि कितेक तुम्हें बारन कितेक करैं बारन-उबारन ह्वै बारन बनौ नहीं ।।

15 पाँचौ तत्त्व माहिं एक सत्त्व ही की सत्ता सत्य याही तत्व-ज्ञान कौ महत्व स्रुति गायौ है । तुम तौ बिभेक रतनाकर कहौ क्यौं पुनि भेद पंचभौतिक के रूप मैं रचायौ है ।। गोपिनि मैं,आप मैं,बियोग और सँजोग हूँ मैं एकै भाव चाहिए सचोप ठहरायौ है । आपु ही सौं आपुकौ मिलाप औ बिछोह कहा मोह यह मिथ्या सुख-दुख सब ठायौ है ।।

16 दिपत दिवाकर कौं दीपक दिखावै कहा तुमसन ज्ञान कहा जानि कहिबौ करैं । कहै रतनाकर पै लौकिक-लगाव मानि मरम अलौकिक की थाह थहिबौ करैं ।। असत असार या पसार मैं हमारी जान जन भरमाए सदा ऐसैं रहिबौ करैं । जागत औ पागत अनेक परपंचनि मैं जैसैं सपने मैं अपने कौं लहिबौ करैं ।।

17 हा ! हा ! इन्हैं रोकन कौं टोक न लगावौ तुम बिसद-बिबेक-ज्ञान गौरव-दुलारे ह्वै । प्रेम रतनाकर कहत इमि ऊधव सौं थहरि करेजौ थामि परम दुखारे ह्वै ।। सीतल करत नैं कु हीतल हमारौ परि बिषम-बियोग-ताप-समन पुचारे ह्वै । गोपिनि के नैन-नीर ध्यान-नलिका ह्वै धाइ दृगनि हमारैं आइ छूटत फुहारे ह्वै ।।

18 प्रेम -नेम निफल निवारि उर-अंतर तैं ब्रह्म-ज्ञान आनँद-निधान भरि लैहैं हम । कहै रतनाकर सुधाकर-मुखीनि-ध्यान आँसुनि सौं धोइ जोति जोइ जरि लैहैं हम ।। आवौ एक बार धारि गोकुल-गली की धूरि तब इहिं नीति की प्रतीति धरि लैहैं हम । मन सौं, करेजे सौं, स्रवन-सिर-आँखिनि सौं ऊधव तिहारी सीख भीख करि लैहैं हम ।।

19 बात चलैं जिनकी उड़ात धीर धूरि भयौ ऊधौ मंत्र फूँकन चले हैं तिन्हैं ज्ञानी ह्वै ।। कहै रतनाकर गुपाल के हिये मैं ऊठी हूक मूक भायनि की अकह कहानी ह्वै ।। गहबर खंठ ह्वै न कढ़न सँदेश पायौ नैन-मग तौलौं आनि बैन अगवानी ह्वै । प्राकृत प्रभाव सौं पलट मनमानी पाइ पानी आज सकल सँवार््यौ काज बानी ह्वै ।।

20 ऊधव कैं चलत गुपाल उर माहिं चल आतुरी मची सो परै कहि न कबीनि सौं । कहै रतनाकर हियौ हूँ चलिबै कौं संग लाख अभिलाष लै उमहि बिकलीनि सौं ।। आनि हिचकी ह्वै गरैं बीच सकस्यौई परै स्वेद ह्वै रस्यौई परै राम-झँझरीनि सौं ।

आनन-दुवार तैं उसाँस ह्वै बढ्यौई परै आँस ह्वै कढ्यौई परै नैन-खिरकीनि सौं ।।