232. राग बिहागरौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग बिहागरौ

[318]

…………$

सोवत नींद आइ गई स्यामहि ।

महरि उठी पौढ़इ दुहुनि कौं, आपु लगी गृह कामहिं ।

बरजति है घर के लोगनि कौं, हरुऐं लै-लै नामहि ।

गाढ़े बोलि न पावत कोऊ, डर मोहन-बलरामहि ॥

सिव-सनकादि अंत नहिं पावत, ध्यावत अह-निसि-जामहिं ।

सूरदास प्रभु ब्रह्म सनातन, सो सोवत नँद-धामहिं ॥

भावार्थ / अर्थ :– सोते ही श्यामसुन्दरको निद्रा आ गयी । व्रजरानी दोनों भाइयोंको सुलाकर उठीं और स्वयं घरके काममें लग गयीं । धीरे-धीरे नाम ले-लेकर घरके लोगोंको मना करती हैं मोहन और बलरामजी के (जाग जानेके) भयसे कोई जोरसे बोल नहीं पाता है । सूरदासजी कहते हैं, रात-दिन प्रत्येक समय ध्यान करते हुए भी शंकरजी तथा सनकादि ऋषि जिनका अंत नहीं पाते, वे ही सनातन ब्रह्मस्वरूप मेरे स्वामी नन्दभवनमें सो रहे हैं ।

[319]

………..$

देखत नंद कान्ह अति सोवत ।

भूखे गए आजु बन भीतर, यह कहि-कहि मुख जोवत ॥

कह्यौ नहीं मानत काहू कौ, आपु हठी दोऊ बीर ।

बार-बार तनु पोंछत कर सौं, अतिहिं प्रेम की पीर ॥

सेज मँगाइ लई तहँ अपनी, जहाँ स्याम-बलराम ।

सूरदास प्रभु कैं ढिग सोए, सँग पौढ़ी नँद-बाम ॥

भावार्थ / अर्थ :– श्रीनन्दजी देख रहे हैं कि कन्हाई गाढ़ी निद्रामें सो रहे हैं ।’आज यह वन में भूखा ही गया था ।’ यह कह-कहकर (अपने लालका) मुख देखते हैं ।’ये दोनों भाई अपनी ही हठ करनेवाले हैं, दूसररे किसी का कहना नहीं मानते ।’ (यह कहते हुए व्रजराज) बार बार हाथसे (पुत्रोंका) शरीर पोंछते (सहलाते) हैं, प्रेमकी अत्यन्त पीड़ा उन्हें हो रही है । जहाँ श्याम-बलराम सो रहे थे, वहीं अपनी भी शय्या उन्होंने मँगा ली । सूरदासजी कहते हैं कि (आज) व्रजराज मेरे स्वामीके पास ही सोये, श्रीनन्दरानी भी (वहाँ) पुत्रोंके साथ ही सोयीं । राग-बिलावल

[320]

……………

जागियै गोपाल लाल, प्रगट भई अंसु-माल, मिट्यौ अंधकाल उठौ जननी-सुखदाई ।

मुकुलित भए कमल-जाल, कुमुद-बृंदबन बिहाल, मेटहु जंजाल, त्रिबिध ताप तन नसाई ॥

ठाढ़े सब सखा द्वार, कहत नंद के कुमार ,

टेरत हैं बार-बार,

आइयै कन्हाई गैयनि भइ बड़ी बार,

भरि-भरि पय थननि भार ,

बछरा-गन करैं पुकार, तुम बिनु जदुराई ॥

तातैं यह अटक परी, दुहन-काल सौंह करी, आवहु उठि क्यौं न हरी, बोलत बल भाई ।

मुख तैं पट झटकि डारि, चंद -बदन दियौ उघारि, जसुमति बलिहारि वारि, लोचन-सुखदाई ॥

धेनु दुहन चले धाइ,

रोहिनी लई बुलाइ,

दोहनि मोहि दै मँगाइ,

तबहीं लै आई बछरा दियौ थन लगाइ,

दुहत बैठि कै कन्हाइ, हँसत नंदराइ, तहाँ मातु दोउ आई ॥

दोहनि कहुँ दूध-धार, सिखवत नँद बार-बार, यह छबि नहिं वार-पार, नंद घर बधाई ।

हलधर तब कह्यौ सुनाइ, धेनु बन चलौ लिवाइ, मेवा लीन्हौ मँगाइ, बिबिध-रस मिठाई ॥

जेंवत बलराम-स्याम, संतन के सुखद धाम, धेनु काज नहिं बिराम, जसुदा जल ल्याई ।

स्याम-राम मुख पखारि, ग्वाल-बाल दिए हँकारि, जमुना -तट मन बिचारि, गाइनि हँकराई ॥

सृंग-बेनु-नाद करत, मुरली मधु अधर धरत, जननी-मन हरत, ग्वाल गावत सुघराई ।

बृंदाबन तुरत जाइ, धेनु चरति तृन अघाइ, स्याम हरष पाइ, निरखि सूरज बलि जाई ॥

भावार्थ / अर्थ :– (माता कहती हैं-) गोपाल लाल! जागो, सूर्यकी किरणें दीखने लगीं, अन्धकार मिट गया, माताको सुख देनेवाले लाल ! उठो । कमल-समूह खिल गये, कुमुदिनियोंका वृन्द जलमें मलिन पड़ गया, (तुम उठकर) सब जंजाल दूर करो, (व्रजवासियोंके) शरीरके तीनों (आधिदैविक,आधिभौतिक, आध्यात्मिक) कष्ट नष्ट कर दो । सब सखा द्वारपर खड़े हैं, वे बार-बार पुकारकर कह रहे हैं-‘नन्दलाल ! कन्हाई ! आओ, गायों को बड़ी देर हो गयी, उनके थन दूधके भारसे बहुत भर गये हैं, यदुनाथ ! तुम्हारे बिना बछडों का समूह भी (दूध पीने के लिये) पुकार कर रहा है । यह रुकावट इसलिये पड़ गयी है कि दुहते समय तुमने शपथ दिला दी (कि मेरे आये बिना गायें मत दुहना)। तुम्हारे भैया बलराम बुला रहे हैं–‘श्यामसुन्दर! उठकर आते क्यों नहीं हो ?’ (यह सुनकर मोहनने) मुखसे झटककर वस्त्र दूर कर दिया, चन्द्रमुख खोल दिया । माता यशोदाके नेत्रोंको बड़ा सुख मिला, माताने जल न्यौछावर किया (और पी लिया) (श्याम) दौड़कर गाय दुहने चले और माता रोहिणीको बुलाया -‘मुझे दोहनी मँगा दो ।’ तभी माता (दोहनी) ले आयीं । बछड़ेको थनसे लगा दिया, कन्हाई बैठकर दूध दुहने लगे, व्रजराज नन्दजी (खड़े) हँस रहे हैं, वहाँ दोनों माताएँ भी आ गयीं । कहीं दोहनी है और कहीं दूधकी धार जाती है, नन्दजी बार-बार सिखला रहे हैं, इस शोभाका कोई अन्त नहीं है, श्रीनन्दजीके घरमें बधाई बज रही है । तब बलरामजीने सम्बोधन करके कहा–‘गायें वनको ले चलो ।’ मेवा और अनेक प्रकार के स्वादवाली मिठाइयाँ मँगा लीं । सत्पुरुषोंके आनन्दधाम श्रीश्याम और बलराम भोजन कर रहे हैं, किंतु गायोंके लिये (गायोंकी चिन्तासे) उन्हें अवकाश नहीं है । माता यशोदा जल ले आयीं, बलराम-श्यामने मुख धोकर गोप-बालकोंको पुकार लिया, यमुना-किनारे जाने की इच्छा करके गायोंको हँकवा दिया । सब शृंग और वेणु (बाँसकी नली) का शब्द करते हैं, अधरोंपर वंशी रखकर मधुर ध्वनिमें बजाते हुए माताका चित्त हरण करते हैं, गोप-बालक सुघराई राग गा रहे हैं । तत्काल वृन्दावन जाकर गायें संतुष्ट होकर घास चर रही हैं, श्यामसुन्दर इससे हर्षित हो रहे हैं । यह शोभा देखकर सूरदास बलिहारी जाता है ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Select Dropdown