228. राग गौरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग गौरी

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बल मोहन बन में दोउ आए ।

जननि जसोदा मातु रोहिनी, हरषित कंठ लगाए ॥

काहैं आजु अबार लगाई, कमल-बदन कुम्हिलाए ।

भूखे गए आजु दोउ भैया, करन कलेउ न पाए ॥

देखहु जाइ कहा जेवन कियौ, रोहिनि तुरत पठाई ।

मैं अन्हवाए देति दुहुनि कौं, तुम अति करौ चँड़ाई ॥

लकुट लियौ, मुरली कर लीन्ही, हलधर दियौ बिषान ।

नीलांबर-पीतांबर लीन्हे, सैंति धरति करि प्रान ॥

मुकुट उतारि धर््यौ लै मंदिर, पोंछति है अँग-धातु ।

अरु बनमाल उतारति गर तैं, सूर स्याम की मातु ॥

भावार्थ / अर्थ :– बलराम और स्याम–दोनों भाई वनसे आ गये । हर्षित होकर मैया यशोदा तथा माता रोहिणीने उन्हें गले लगाया । (वे बोलीं-) ‘आज देर क्यों कर दी? तुम्हारे कमलमुख तो सूख रहे हैं । आज दोनों भाई खाली पेट गये थे, कलेऊ भी नहीं कर पाये थे । तुम जाकर देखो तो क्या भोजन बना है । (यह कहकर यशोदाजीने) रोहिणीजी को तुरंत भेज दिया-मैं दोनोंको स्नान कराये देती हूँ, तुम अत्यन्त शीघ्रता करो।’ (माता ने) छड़ी ली, हाथमें वंशी ले ली, बलरामजी ने सींग दे दिया, नीलाम्बर और पीताम्बर लेकर अपने प्राणोंके समान सँभालकर मैया उनको रखती है । उन्होंने मुकुट उतारकर घर के भीतर ले जाकर रख दिया, सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दरकी माता उनके गलेसे वनमाला भी उतार रही है और अब शरीरमे लगे (गेरू, खड़िया आदि) धातुएँ पोंछ रही हैं ।

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मैया ! हौं न चरैहौं गाइ ।

सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाइ पिराइ ॥

जौ न पत्याहि पूछि बलदाउहि, अपनी सौंह दिवाइ ।

यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ ॥

मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ ।

सूर स्याम मेरो अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ ॥

भावार्थ / अर्थ :– (श्यामसुन्दर कहते हैं -) ‘मैया! मैं गाय नहीं चराऊँगा । सभी गोपबालक मुझसे ही गायें हँकवाते हैं (दौड़ते-दौड़ते) मेरे पैर दर्द करने लगते हैं । यदि तुझे विश्वास न हो तो दाऊ भैयाको अपनी शपथ देकर पूछ ले।’ सूरदासजी कहते हैं, यह सुनकर मैया यशोदा रुष्ट होकर ग्वालोंको गाली देने लगीं (और बोलीं-) ‘मैं तो अपने लड़के को इसलिये भेजती हूँ कि वह (अपना) मन बहला आवे; मेरा श्याम निरा बालक है, उसे सब दौड़ा-दौड़ा कर मारे डालते हैं ।’

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मैया बहुत बुरौ बलदाऊ ।

कहन लग्यौ बन बड़ौ तमासौ, सब मौड़ा मिलि आऊ ॥

मोहूँ कौं चुचकारि गयौ लै, जहाँ सघन बन झाऊ ।

भागि चलौ कहि गयौ उहाँ तैं, काटि खाइ रे हाऊ ॥

हौं डरपौं अरु रोवौं, कोउ नहिं धीर धराऊ ।

थरसि गयौं नहीं भागि सकौं, वै भागै जात अगाऊ ॥

मोसौं कहत मोल कौ लीनौ, आपु कहावत साऊ ।

सूरदास बल बड़ौ चवाई, तैसेहिं मिले सखाऊ ॥

भावार्थ / अर्थ :– श्रीकृष्णचन्द्र कहते हैं -) ‘मैया ! यह दाऊ दादा बहुत बुरा है । कहने लगा कि ‘वनमें बड़ा तमाशा ( अद्भुत दृश्य) है , सभी बालक एकत्र होकर आ जाओ ।’ मुझे भी पुचकारकर वहाँ ले गया, जहाँ झाउओंका घना वन है । (वहाँ जानेपर ) यह कहकर भाग गया कि ‘अरे भाग चलो, यहाँ हाऊ काट खायेगा ।’ मैं डरता था, काँपता था और रोता था; मुझे धैर्य दिलानेवाला भी कोई नहीं था । मैं डर गया था, भाग पाता नहीं था, वे सब आगे-आगे भागे जाते थे । मुझसे कहता है कि तू मोल लिया हुआ है और स्वयं भला कहलाता है ।’ सूरदासजी कहते हैं–(मैयाने कहा-) ‘बलराम तो बड़ा झूठा है और वैसे ही सखा भी मिल गये हैं ।’

[313]

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तुम कत गाइ चरावन जात ।

पिता तुम्हारौ नंद महर सौ, अरु जसुमति सी जाकी मात ॥

खेलत रहौ आपने घर मैं, माखन दधि भावै सो खात ।

अमृत बचन कहौ मुख अपने, रोम-रोम पुलकित सब गात ॥

अब काहू के जाहु कहूँ जनि, आवति हैं जुबती इतरात ।

सूर स्याम मेरे नैननि आगे तैं कत कहूँ जात हौ तात ॥

भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं- (मैया बोली-) ‘तुम गायें चराने क्यों जाते हो ? व्रजराज नन्द-जैसे तुम्हारे पिता हैं और (मुझ) यशोदा-जैसी तुम्हारी माता है । तुम अपने घरपर ही खेलते रहो और मक्खन-दही-जो अच्छा लगे, खा लिया करो । अपने मुखसे अमृतके समान बातें कहो । (तुम्हारी मधुर वाणी सुनकर) मेरे पूरे शरीरका रोम-रोम पुलकित हो जाता है । अब किसी के घर कहीं मत जाओ । ये युवतियाँ तो गर्वमें फूली (कुछ-न-कुछ दोष लगाने) आती ही हैं । मेरे लाल ! श्यामसुन्दर ! मेरी आँखोंके आगेसे कहीं भी क्यों जाते हो ?’

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माँगि लेहु जो भावै प्यारे ।

बहुत भाँति मेवा सब मेरैं, षटरस ब्यंजन न्यारे ॥

सबै जोरि राखति हित तुम्हरैं, मैं जानति तुम बानि ।

तुरत-मथ्यौ दधिमाखन आछौ, खाहु देउँ सो आनि ॥

माखन दधि लागत अति प्यारौ, और न भावै मोहि ।

सूर जननि माखन-दधि दीन्हौ, खात हँसत मुख जोहि ॥

भावार्थ / अर्थ :– (माताने कहा-)’प्यारे लाल ! जो रुचे, वह माँग लो । मेरे घर बहुत प्रकारके सभी मेवे हैं, षटरस भोजनके पदार्थ अलग रखे हैं । यह सब तुम्हारे लिये ही मैं एकत्र कर रखती हूँ, क्योंकि तुम्हारा स्वभाव मैं जानती हूँ । तुरंतके मथे दहीसे निकला अच्छा मक्खन है; उसे लाकर देती हूँ, खा लो ।’ (श्यामसुन्दर बोले -) ‘मुझे मक्खन और दही अत्यन्त प्रिय लगता है और कुछ मुझे रुचता नहीं ‘ सूरदासजी कहते हैं कि मैयाने दही-मक्खन दिया; उसे खाते हुए हँस रहे हैं, माता उनका मुख देख रही है ।