राग धनाश्री
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बृंदाबन मोकों अति भावत ।
सुनहु सखा तुम सुबल, श्रीदामा, ब्रज तैं बन गौ चारन आवत ॥
कामधेनु सुरतरुसुख जितने, रमा सहित बैकुंठ भुलावत ।
इहिं बृंदाबन, इहिं जमुना-तट, ये सुरभी अति सुखद चरावत ॥
पुनि-पुनि कहत स्याम श्रीमुख सौं, तुम मेरैं मन अतिहिं सुहावत ।
सूरदास सुनि ग्वाल चकृत भए , यह लीला हरि प्रगट दिखावत ॥
भावार्थ / अर्थ :– (श्यामसुन्दर कहते हैं -) ‘सखा सुबल, श्रीदामा, तुमलोग सुनो! वृन्दावन मुझे बहुत अच्छा लगता है, इसीसे व्रजसे मैं यहाँ वनमें गायें चराने आता हूँ । कामधेनु, कल्पवृक्ष आदि जितने वैकुण्ठके सुख हैं, लक्ष्मी के साथ वैकुण्ठके उन सब सुखोंको मैं भूल जाता हूँ । इस वृन्दावनमें, यहाँ यमुनाकिनारे इन गायों को चराना मुझे अत्यन्त सुखदायी लगता है ।’ श्यामसुन्दर बार-बार अपने श्रीमुखसे कहते हैं – ‘तुमलोग मेरे मनको बहुत अच्छे लगते हो । सूरदासजी कहते हैं कि गोपबालक यह सुनकर चकित हो गये, श्रीहरि अपनी लीलाका यह रहस्य उन्हें प्रत्यक्ष दिखला (बतला) रहे हैं ।