राग नट-नारायन
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चरावत बृंदाबन हरि धेनु ।
ग्वाल सखा सब संग लगाए, खेलत हैं करि चैनु ॥
कोउ गावत, कोउ मुरलि बजावत, कोउ विषान, कोउ बेनु ।
कोउ निरतत कोउ उघटि तार दै, जुरि ब्रज-बालक-सेनु ॥
त्रिबिध पवन जहँ बहत निसादिन, सुभग कुंज घन ऐनु ।
सूर स्याम निज धाम बिसारत, आवत यह सुख लैनु ॥
श्रीकृष्णचन्द्र वृन्दावनमें गायें चरा रहे हैं और सब गोपसखाओको साथ लेकर आनन्दकी सृष्टि करते हुए खेल रहे हैं । कोई गाता है, कोई वंशी बजाता है, कोई सींग बजाता है और कोई बाँसकी नली ही बजाथा है । व्रजके बालकों की सेना एकत्र हो गयी है; उनमें कोई नाचता है, कोई ताल देकर समपर तान तोड़ता है । जहाँ त्रिविध (शीतल, मन्द, सुगन्ध) पवन रात-दिन चलता है और सुन्दर घने कुञ्ज ही निवासस्थान हैं , सूरदासजी कहते हैं- वहाँ (वृन्दावनमें) श्यामसुन्दर अपने घरको भी भूलकर यह (क्रीड़ाका) सुख लेने आते हैं