217. राग रामकली – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग रामकली

[295]

………..$

लालहि जगाइ बलि गई माता ।

निरखि मुख-चंद-छबि, मुदित भइ मनहिं-मन ,

कहत आधैं बचन भयौ प्राता ।

नैन अलसात अति, बार-बार जमुहात ,

कंठ लगि जात, हरषात गाता ।

बदन पोंछियौ जल जमुन सौं धौइ कै,

कह्यौ मुसुकाइ, कछु खाहु ताता ॥

दूध औट्यौ आनि, अधिक मिसिरी सानि ,

लेहु माखन पानि प्रान-दाता ।

सूर-प्रभु कियौ भोजन बिबिध भाँति सौं,

पियौ पय मोद करि घूँट साता ॥

भावार्थ / अर्थ :– अपने लालको जगाकर माता उसपर न्योछावर हो गयी । उस चन्द्रमुखकी शोभा देखकर मन-ही-मन आनन्दित हुई । (श्याम) आधी (अस्पष्ट) वाणीमें कहते हैं- ‘सबेरा हो गया?’ नेत्र अधिक आलस्यभरे हैं, बार-बार जम्हाई लेते हैं, । माता के गले लिपट जाते हैं, इससे उसका शरीर हर्षित (पुलकित) हो रहा है । यमुना-जल से धोकर मुख पोंछ दिया और मुसकराकर (मैया) बोली–‘लाल! कुछ खा लो । मेरे प्राणदाता! औटाया (गाढ़ाकिया) दूध लायी हूँ, उसमें खूब अधिक मिश्री मिलायी है; (और) यह मक्खन (अपने) हाथपर ले लो ।’ सूरदासजी के स्वामीने अनेक प्रकार से भोजन किया और हर्षित होकर (केवल) सात घूँट दूध पिया ।