राग बिलावल
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जागहु-जागहु नंद-कुमार ।
रबि बहु चढ़्यौ, रैनि सब निघटी, उचटे सकल किवार ॥
वारि-वारि जल पियति जसोदा, उठि मेरे प्रान-अधार ।
घर-घर गोपी दह्यौ बिलोवैं, कर कंगन-झंकार ॥
साँझ दुहन तुम कह्यौ गाइ कौं, तातैं होति अबार ।
सूरदास प्रभु उठे तुरतहीं, लीला अगम अपार ॥
भावार्थ / अर्थ :– ‘नन्दनन्दन! जागो, जाग जाओ! सूर्य बहुत ऊपर चढ़ आया, पूरी रात्रि बीत गयी, सब किवाड़ खुल गये ।’ माता यशोदा (अपने लालके आयुवर्धनकी कामनासे उसपर) घुमा-घुमाकर जल पीती हैं (और कहती हैं-) ‘मेरे प्राणोंके आधार ! उठो! घर-घर में गोपियाँ (अपने) हाथके कंकणोंकी झंकार करती दही मथ रही हैं, तुमने संध्या समय गाय दुहनेके लिये कहा था, इसलिये अब देर हो रही है !’ सूरदासजी कहते हैं – (यह सुनते ही) मेरे स्वामी तुरंत उठ गये । इनकी लीला अगम्य और अपार है ।
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तनक कनक खी दोहनी, दै-दै री मैया ॥
तात दुहन सीखन कह्यौ, मोहि धौरी गैया ॥
अटपट आसन बैठि कै, गो-थन कर लीन्हौ ।
धार अनतहीं देखि कै, ब्रजपति हँसि दीन्हौ ॥
घर-घर तैं आईं सबै, देखन ब्रज-नारी ।
चितै चतुर चित हरि लियौ, हँसि गोप-बिहारी ॥
बिप्र बोलि आसन दियौ, कह्यौ बेद उचारी ।
सूर स्याम सुरभी दुही, संतनि हितकारी ॥
भावार्थ / अर्थ :– (मोहन बोले–) ‘मैया री ! मुझे सोने की दोहनी तो दे दे । बाबा ने मुझे धौरी (कपिला गायको दुहना सिखाने के लिये कहा है ।’ (दोहनी लेकर गोष्ठमें गये) अटपटे आसन से बैठकर गायका थन हाथमें लिया; किंतु (दूधकी) धार (बर्तनमें न पड़कर) अन्यत्र पड़ते देख व्रजराज हँस पड़े । घर-घरसे व्रजकी स्त्रियाँ (मोहनका गाय दुहना) देखने आयीं । उनकी ओर देखकर हँसकर गोपोंमें क्रीड़ा करनेवाले श्यामने उनका चित्त हरण कर लिया । (व्रजराजने) ब्राह्मणों को बुलाकर आसन दिया और उनसे वेदोच्चारण (स्वस्तिपाठ) करने की प्रार्थना की । सूरदासजी कहते हैं कि सत्पुरुषोंका मंगल करने वाले श्यामसुन्दरने आज गाय दुहा ।