राग सारंग
[258]
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सुनहु बात मेरी बलराम ।
करन देहु इन की मोहि पूजा, चोरी प्रगटत नाम ॥
तुमही कहौ, कमी काहे की, नब-निधि मेरैं धाम ।
मैं बरजति, सुत जाहु कहूँ जनि, कहि हारी दिन -जाम ॥
तुमहु मोहि अपराध लगायौ, माखन प्यारौ स्याम ।
सुनि मैया, तोहि छाँड़ि कहौं किहि, को राखै तेरैं ताम ॥
तेरी सौं, उरहन लै आवतिं झूठहिं ब्रज की बाम ।
सूर स्याम अतिहीं अकुलाने, कब के बाँधे दाम ॥
भावार्थ / अर्थ :– (माता कहती हैं -) ‘बलराम ! मेरी सुनो । मुजे इनकी पूजा कर लेने दो; क्योंकि अब ये चोरीमें अपना नाम प्रसिद्ध करने लगे हैं । मेरे घरमें नवों निधियाँ हैं; तुम्हीं बताओ, यहाँ किसका अभाव है ? मैं मना करती हूँ -पुत्र! कहीं मत जाओ ! किंतु रात-दिन कहते कहते हार गयी । तुम भी मुझे ही दोष लगाते हो कि मुझे श्यामसे भी मक्खन प्यारा है !’ (बलरामजी कहते हैं-) मैया ! सुन तुझे छोड़कर और किसको कहूँ, तेरे क्रोध करनेपर दूसरा कौन रक्षा कर सकता है ? तेरी शपथ ! ये व्रजकी स्त्रियाँ झूठ-मूठ ही उलाहना लेकरे आती है ।’ सूरदासजी कहते हैं -श्यामसुन्दर कबसे रस्सीमें बँधे हैं ? अब तो वे अत्यन्त व्याकुल हो गये हैं ।
[259]
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कहा करौं हरि बहुत खिझाई ।
सहि न सकी, रिसहीं रिस भरि गई, बहुतै ढीठ कन्हाई ॥
मेरौ कह्यौ नैकु नहिं मानत, करत आपनी टेक ।
भोर होत उरहन लै आवतिं, ब्रज की बधू अनेक ॥
फिरत जहाँ-तहँ दुंद मचावत, घर न रहत छन एक ।
सूर स्याम त्रीभुवन कौ कर्ता जसुमति गहि निज टेक ॥
भावार्थ / अर्थ :– (माता कहती हैं -) क्या करूँ , श्यामने मुझे बहुत तंग कर लिया था, मै सहन नहीं कर सकी, बार बार क्रोध आनेसे मैं आवेशमें आ गयी, यह कन्हैया बहुत ही ढीठ (हो गया) है । मेरा कहना यह तनिक भी नहीं मानता, अपनी हठ ही करता है और व्रजकी अनेकों गोपियाँ सबेरा होते ही उलाहना लेकर आ जाती हैं । जहाँ-तहाँ यह धूम मचाता घूमता है, एक क्षण भी घर नहीं रहता । सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दर त्रिभुवनके कर्ता हैं, किंतु आज तो (उन्हें बाँध रखने की) अपनी हठ यशोदाजीने भी पकड़ ली है ।