राग बिलावल
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तेरी सौं सुनु-सुनु मेरी मैया !
आवत उबटि पर््यौ ता ऊपर, मारन कौं दौरी इक गैया ॥
ब्यानी गाइ बछरुवा चाटति, हौं पय पियत पतूखिनि लैया ।
यहै देखि मोकौं बिजुकानी, भाजि चल्यौ कहि दैया दैया ॥
दोउ सींग बिच ह्वै हौं आयौ, जहाँ न कोऊ हौ रखवैया ।
तेरौ पुन्य सहाय भयो है, उबर््यौ बाबा नंद दुहैया ॥
याके चरित कहा कोउ जानै, बूझौ धौं संकर्षन भैया ।
सूरदास स्वामीकी जननी, उर लगाइ हँसि लेति बलैया ॥
भावार्थ / अर्थ :– (मोहन भोलेपन से बोले -) ‘मेरी मैया ! सुन,सुन; तेरी शपथ (सच कह रहा हूँ) घर आते समय एक ऊबड़-खाबड़ मार्गमें जा पड़ा और उसपर एक गाय मुझे मारने दौड़ी । गाय ब्यायी हुई थी और अपने बछड़ेको चाट रही थी, मैं छोटे दोनेमें दुहकर उसका धारोष्ण दूध पी रहा था । यही देखकर वह मुझसे भड़क गयी, मैं ‘दैया रे ! दैया रे ! कह कर भाग पड़ा । जहाँपर कोई भी रक्षा करनेवाला नहीं था, वहाँ मैं उसके दोनों सींगोंके बीच में पड़कर बच आया ! मैं नन्दबाबाकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि आज तेरा पुण्य ही मेरा सहायक बना है ।’ सूरदासजी कहते हैं कि मेरे इन स्वामी की लीला कोई क्या समझ सकता है, चाहे इनके बड़े भाई बलरामजी से पूछ लो (वे भी कहेंगे कि इनकी लीला अद्भुत है ) । माता तो मोहनको हृदय से लगाकर उनकी बलैया ले रही हैं ।