राग बिलावल
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तेरैं लाल मेरौ माखन खायौ ।
दुपहर दिवस जानि घर सूनौं, ढूँढ़ि-ढँढ़ोरि आपही आयौ ॥
खोलि किवार, पैठि मंदिर मैं, दूध-दही सब सखनि खवायौ ।
ऊखल चढ़ि सींके कौ लीन्हौ, अनभावत भुइँ मैं ढरकायौ ॥
दिन प्रति हानि होति गोरस की, यह ढोटा कौनैं ढँग लायौ ।
सूरस्याम कौं हटकि न राखै, तै ही पूत अनोखौ जायौ ॥
भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं- (एक गोपी उलाहना देती है-) तुम्हारे लालने मेरा मक्खन खाया है । दिन में दोपहरके समय घरको सुनसान समझकर स्वयं ढूँढ़-ढ़ाँढ़कर इसने स्वयं खाया ( अकेले ही खा लेता तो कोई बात नहीं थी। किवाड़ खोलकर, घरमें घुसकर सारा दूध -दही इसने सखाओं को खिला दिया । ऊखलपर चढ़कर छींकेपर रखा गोरस भी ले लिया और जो अच्छा नहीं लगा, उसे पृथ्वीपर ढुलका दिया ।प्रतिदिन इसी प्रकार गोरसकी बरबादी हो रही है, तुमने इस पुत्रको किस ढंगपर लगा दिया । श्यामसुन्दर को मना करके घर क्यों नहीं रखती हो । क्या तुमने ही अनोखा पुत्र उत्पन्न किया है ?