राग नटनारायन
[210]
………..$
लोगनि कहत झुकति तू बौरी ।
दधि माखन गाँठी दै राखति, करत फिरत सुत चोरी ॥
जाके घर की हानि होति नित, सो नहिं आनि कहै री ।
जाति-पाँति के लोग न देखति और बसैहै नैरी ॥
घर-घर कान्ह खान कौ डोलत, बड़ी कृपन तू है री ।
सूर स्याम कौं जब जोइ भावै, सोइ तबहीं तू दै री ॥
भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं -(कोई गोपी व्रजरानी से कहती है-)’लोगोंके कहनेसे तुम पगली होकर खीझती हो! अपना दही-मक्खन तो गाँठ बाँधकर (छिपाकर) रखती हो और पुत्र चोरी करता घूमता है । जिसके घरकी प्रतिदिन हानि होती है, वह आकर कहेगा नहीं ? अपने जाति-पाँति के लोगोंको देखती नहीं हो ( उनका संकोच न करके उन्हें डाँटती हो, वे गाँव छोड़कर चले जायँगे तो) क्या दूसरे नये लोगोंको बसाओगी? तुम तो बड़ी कृपण हो (तभी तो) कन्हाई भोजन के लिये घर-घर घूमता है । श्यामसुन्दर जब जो रुचे, वही तुम उसे उसी समय दिया करो ।’