149. राग रामकली – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग रामकली

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अपनौ गाउँ लेउ नँदरानी ।

बड़े बाप की बेटी, पूतहि भली पढ़ावति बानी ॥

सखा-भीर लै पैठत घर मैं, आपु खाइ तौ सहिऐ ।

मैं जब चली सामुहैं पकरन, तब के गुन कहा कहिऐ ॥

भाजि गए दुरि देखत कतहूँ, मैं घर पौढ़ी आइ ।

हरैं-हरैं बेनी गहि पाछै, बाँधी पाटी लाइ ॥

सुनु मैया, याकै गुन मोसौं, इन मोहि लयो बुलाई ।

दधि मैं पड़ी सेंत की मोपै चींटी सबै कढ़ाई ॥

टहल करत मैं याके घर की, यह पति सँग मिलि सोई ।

सूर-बचन सुनि हँसी जसोदा, ग्वालि रही मुख गोई ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपी बोली) नन्दरानी! अपना गाँव सँभालो (हम किसी दूसरे गाँव में बसेंगी)। तुम तो बड़े (सम्मानित) पिताकी पुत्री हो, सो पुत्रको अच्छी बात पढ़ा (सिखला) रही हो । वह स्वयं खा ले तो सहा भी जाय, सखाओंकी भीड़ लेकर घरमें घुसता है । जब मैं सामनेसे पकड़ने चली, तबके इसके गुण (उस समयकी इसकी चेष्टा) क्या कहूँ । मेरे देखनेमें तो ये कहीं भागकर छिप गये, मैं घर लौटकर लेट गयी, सो धीरे-धीरे पीछेसे मेरी चोटी पकड़कर पलंगकी पाटीमें लगाकर (फँसाकर) बाँध दी! (यह सुनकर श्यामसुन्दर सरल वात्सल्यभाव से बोले – ) ‘मैया! इसके गुण मुझसे सुन, इसी ने मुझे बुलाया और दहीमें पड़ी सब चींटियाँ इसने बिना कुछ दिये ही मुझसे निकलवायीं । मैं तो इसके घरकी सेवा (दही मेंसे चींटी निकालने का काम) कर रहा था और यह जाकर अपने पतिके पास सो गयी ।’ सूरदासजी कहते हैं कि श्यामकी बात सुनकर यशोदाजी हँस पड़ी और गोपी (लज्जासे) मुख छिपाकर रह गयी ।

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