120. राग बिलावल – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग बिलावल

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मया करिये कृपाल, प्रतिपाल संसार उदधि जंजाल तैं परौं पार ।

काहू के ब्रह्मा, काहू के महेस, प्रभु! मेरे तौ तुमही अधार ॥

दीन के दयाल हरि, कृपा मोकौं करि, यह कहि-कहि लोटत बार-बार ।

सूर स्याम अंतरजामी स्वामी जगत के कहा कहौं करौ निरवार ॥

भावार्थ / अर्थ :– (ब्राह्मण कहता है-)’हे कृपालु ! मुझपर कृपा कीजिये और मेरा पालन कीजिये, जिससे इस संसार-सागररूपी जंजालमें पड़ा मैं इसके पार हो जाऊँ । किसीके आधार ब्रह्माजी हैं और किसीके शंकरजी; किंतु प्रभो! मेरे आधार तो (एक) आपही हैं । हे दीनों पर दया करनेवाले श्रीहरि! मुझपर कृपा कीजिये । श्यामसुन्दर ! आप अन्त र्यामी हैं, जगत के स्वामी हैं, आपसे और स्पष्ट करके क्या कहूँ ।’ सूरदासजी कहते हैं कि यह कहता हुआ वह (ब्राह्मण आँगनमें) बार-बार लोट रहा है ।

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खेलत स्याम पौरि कैं बाहर ब्रज-लरिका सँग जोरी ।

तैसेइ आपु तैसेई लरिका, अज्ञ सबनि मति थोरी ॥

गावत हाँक देत, किलकारत, दुरि देखति नँदरानी ।

अति पुलकित गदगद मुख बानी, मन-मन महरि सिहानी ॥

माटी लै मुख मेलि दई हरि, तबहिं जसोदा जानी ।

साँटी लिए दौरि भुज पकर््यौ, स्याम लँगरई ठानी ॥

लरिकन कौं तुम सब दिन झुठवत, मोसौं कहा कहौगे ।

मैया मैं माटी नहिं खाई, मुख देखैं निबहौगे ॥

बदन उधारि दिखायौ त्रिभुवन, बन घन नदी-सुमेर ।

नभ-ससि-रबि मुख भीतरहीं सब सागर-धरनी-फेर ॥

यह देखत जननी मन ब्याकुल, बालक-मुख कहा आहि ।

नैन उधारि, बदन हरि मुँद्यौ, माता-मन अवगाहि ॥

झूठैं लोग लगावत मोकौं, माटी मोहि न सुहावै ।

सूरदास तब कहति जसोदा, ब्रज-लोगनि यह भावै ॥

भावार्थ / अर्थ :– द्वारके बाहर व्रजके बालकोंको एकत्र करके श्यामसुन्दर खेल रहे हैं । वैसे ही सब बालक हैं, सब अनजान हैं, सबमें थोड़ी ही समझ है । कभी गाते हैं, कभी किसीको पुकारते हैं, कभी किलकारी मारते हैं, यह सब क्रीड़ा श्रीनन्दरानी छिपकर देख रही हैं । उनका शरीर अत्यन्त पुलकित हो रहा है । कण्ठस्वर गद्गद हो गया है, व्रज रानी मन-ही-मन मुग्ध हो रही हैं । इतनेमें ही श्यामने मिट्टी लेकर मुखमें डाल ली तभी यशोदाजीने इसे जान (देख) लिया । वे छड़ी लेकर दौड़ पड़ीं और उन्होंने (श्यामकी) भुजा पकड़ ली; इससे श्यामसुन्दर मचलने लगे । (माताने कहा-) ‘प्रत्येक दिन तुम बालकों को झूठा सिद्ध कर देते हो, पर अब मुझसे क्या कहोगे? (कौन-सा बहाना बनाओगे?) (श्यामसुन्दर बोले-) ‘मैया ! मैंने मिट्टी नहीं खायी ।’ (माता बोली-) ‘मेरे मुख देख लेनेपर (ही) छुटकारा पाओगे ।’ श्यामने मुख खोलकर उसमें तीनों लोक दिखला दिये- घने वन, नदियाँ, सुमेरु आदि पर्वत, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, समुद्र तथा पृथ्वी आदि समस्त सृष्टिचक्र मुख के भीतर ही दिखा दिया । यह देखकर माता मनमें अत्यन्त व्याकुल हो गयीं–‘मेरे बालकके मुखमें यह सब क्या है ? माताके मनकी बात समझकर श्यामसुन्दर ने मुख बंद कर लिया और बोले- ‘मैया! तू नेत्र तो खोल (आँखें क्यों मूँदे हैं) लोग मुझे झूठमूठ दोष देते हैं, मिट््टी तो मुझे अच्छी ही नहीं लगती ।’ सूरदासजी कहते हैं तब माता यशोदाने कहा–‘व्रजके लोगोंको यह (दूसरेकी झूठी चुगली करना) अच्छा लगता है ।’ (मेरे लालको सब झूठा दोष लगाते हैं ।)