111. राग कान्हरौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग कान्हरौ

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बोलि लेहु हलधर भैया कौं ।

मेरे आगैं खेल करौ कछु, सुख दीजै मैया कौ ॥

मैं मूँदौ हरि! आँखि तुम्हारी, बालक रहैं लुकाई ।

हरषि स्याम सब सखा बुलाए खेलन आँखि-मुँदाई ॥

हलधर कह्यौ आँखि को मूँदै, हरि कह्यौ मातु जसोदा ।

सूर स्याम लए जननि खिलावति, हरष सहित मन मोदा ॥

भावार्थ / अर्थ :– (माताने मोहन से कहा-) अपने बड़े भाई बलरामको बुला लो । मेरे सामने ही कोई खेल खेलो और अपनी मैया को भी आनन्द दो । श्यामसुन्दर! मैं तुम्हारे नेत्र बंद करूँ, (दूसरे सब) बालक छिप जायँ ।’ इससे प्रसन्न होकर आँखमिचौनी खेलने के लिये श्यामसुन्दरने सब सखाओं को बुलाया । बलरामजी ने पूछा -‘आँख बंद कौन करेगा ?’ श्याम सुन्दर बोले – ‘मैया यशोदा (मेरे) नेत्र बंद करेंगी ।’ सूरदासजी कहते हैं, प्रसन्नता के साथ श्यामसुन्दर को साथ लेकर माता खेला रही हैं । उनका चित्त आनन्दित हो रहा है ।