104. राग कान्हरौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग कान्हरौ

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साँझ भई घर आवहु प्यारे ।

दौरत कहा चोट लगगगुहै कहुँ, पुनि खेलिहौ सकारे ॥

आपुहिं जाइ बाँह गहि ल्याई, खेह रही लपटाइ ।

धूरि झारि तातौ जल ल्याई, तेल परसि अन्हवाइ ॥

सरस बसन तन पोंछि स्याम कौ, भीतर गई लिवाइ ।

सूर स्याम कछु करौ बियारी, पुनि राखौं पौढ़ाइ ॥

भावार्थ / अर्थ :– (माता कहती हैं) ‘प्यारे लाल! संध्या हो गयी, अब घर चले आओ। दौड़ते क्यों हो, कहीं चोट लग जायगी, सबेरे फिर खेलना ।’ (यह कह कर) स्वयं जाकर भुजा पकड़कर माता मोहन को ले आयी । उनके शरीरमें धूलि लिपट रही थी, शरीरकी धूलि झाड़कर तेल लगाया और गरम जल ले आकर स्नान कराया । कोमल वस्त्र से श्यामका शरीर पोंछकर तब उन्हें घर के भीतर ले गयी सूरदासजी कहते हैं– (मैया ने कहा)-)’लाल ! कुछ ब्यालू (सायंकालीन भोजन) कर लो, फिर सुला दूँ ।

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