राग धनाशी
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(आछे मेरे) लाल हो, ऐसी आरि न कीजै ।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई जोइ भावै सोइ लीजै ॥
सद माखन घृत दह्यौ सजायौ, अरु मीठौ पय पीजै ।
पा लागौं हठ अधिक करौ जनि, अति रिस तैं तन छीजै ॥
आन बतावति, आन दिखावति, बालक तौ न पतीजै ।
खसि-खसि परत कान्ह कनियाँ तैं, सुसुकि-सुसुकि मन खीजै ॥
जल -पुटि आनि धर््यौ आँगन मैं, मोहन नैकु तौ लीजै ।
सूर स्याम हठी चंदहि माँगै, सु तौ कहाँ तैं दीजै ॥
भावार्थ ;— ‘(मेरे अच्छे) लाल ! ऐसी हठ नहीं करनी चाहिये । मधु, मेवा, पकवान तथा मिठाइयोंमें तुम्हें जो अच्छा लगे, वह ले लो । तुरंतका निकाला मक्खन है, सजाव (भली प्रकार जमा) दही है, घी है, (इन्हें लो) और मीठा दूध पीओ । मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, अब अधिक हठ मत करो; क्रोध करनेसे शरीर दुर्बल होता है ।’ (यह कहकर माता) कुछ दूसरी बातें सुनाती है, कुछ अन्य वस्तुएँ दिखाती है, फिरभी उनका बालक उनकी बात का विश्वास नहीं करता (वह मान बैठा है कि मैया चन्द्रमा देसकती है पर देती नहीं है) कन्हैया गोदसे (मचलकर) बार-बार खिसका पड़ता है, सिसकारी मार-मारकर मन-ही-मन खीझ रहा है। तब माताने जलसे भरा बर्तन लाकर आँगनमें रखा और बोलीं–‘मोहन लो! इसे तनिक अब (तुम स्वयं) पकड़ो तो।’ सूरदासजी कहते हैं कि श्याम तो हठपूर्वक चन्द्रमाको माँग रहा है; भला, उसे कोई कहाँसे दे सकता है । राग-कन्हारौ
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बार-बार जसुमति सुत बोधति, आउ चंद तोहि लाल बुलावै ।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई, आपुन खैहै, तोहि खवावै ॥
हाथहि पर तोहि लीन्हे खेलै नैकु नहीं धरनी बैठावै ।
जल-बासन कर लै जु उठावति, याही मैं तू तन धरि आवै ॥
जल-पुटि आनि धरनि पर राख्यौ, गहि आन्यौ वह चंद दिखावै ।
सूरदास प्रभु हँसि मुसुक्याने, बार-बार दोऊ कर नावै ॥
भावार्थ / अर्थ :– श्रीयशोदाजी अपने पुत्रको चुप करने के लिये बार-बार कहती हैं-‘चन्द्र! आओ । तुम्हें मेरा लाल बुला रहा है । यह मधु, मेवा, पकवान और मिठाइयाँ स्वयं खायेगा तथा तुम्हें भी खिलायेगा । तुम्हें हाथपर ही रखकर (तुम्हारे साथ) खेलेगा, थोड़ी देरके लिये भी पृथ्वीपर नहीं बैठायेगा ।’फिर हाथमें पानीसे भरा बर्तन उठाकर कहती हैं-‘चन्द्रमा! तुम शरीर धारण करके इसी बर्तनमें आ जाओ।’ फिर जलका बर्तन लाकर पृथ्वी पर रख दिया और दिखाने लगीं-‘ लाल! वह चन्द्रमा मैं पकड़ लायी।’ सूरदासजी कहते हैं कि (जलमें चन्द्रबिम्ब देखकर) मेरे प्रभु हँस पड़े और मुसकराते हुए दोनों हाथ (पानीमें) डालने लगे ।