मानसरोवर भाग 3

धिक्कार

– लेखक – मुंशी प्रेमचंद

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अनाथ और विधवा मानी के लिए जीवन में अब रोने के सिवा दूसरा अवलंब न था । वह
पाँच ही वर्ष की थी जब पिता का देहान्त हो गया । माता ने किसी तरह उसका पालन किया ।
सोलह वर्ष की अवस्था में मुहल्लेवालों की मदद से उसका विवाह भी हो गया, पर साल के
अन्दर ही माता और पति दोनों विदा हो गये । इस विपत्ति में उसे अपने चचा वंशीधर के
सिवा और कोई ऐसा नजर न आया जो उसे आश्रय देता । वंशीधर ने अब तक जो व्यवहार किया
था, उससे यह आशा न हो सकती थी कि वहाँ वह शांति के साथ रह सकेगी । पर, वह सब कुछ
सहने और सब करने को तैयार थी । वह गाली, झिड़की, मारपीट सब सह लेगी, कोई उस पर
संदेह तो न करेगा, उस पर मिथ्या लांछन तो न लगेगा, शोहदों और लुच्चों से उसकी रक्षा
होगी । वंशीधर को कुल-मर्यादा की कुछ चिन्ता हुई । मानी की याचना को अस्वीकार न कर
सके ।
लेकिन दो-चार महीनों में ही मानी को मालूम हो गया कि इस घर में बहुत दिनों तक उसका
निबाह न होगा । वह घर का सारा काम करती, इशारों पर नाचती, सबको खुश रखने की कोशिश
करती; पर न जाने क्यों चचा और चची दोनों उससे जलते रहते । उसके आते ही महरी अलग
कर दी गयी । नहलाने-धुलाने के लिए एक लौंडा था, उसे भी जवाब दिया गया । पर मानी से
इतना उबार होने पर भी चचा और चची न जाने क्यों उससे मुँह फुलाये रहते । कभी चचा
घुड़कियाँ जमाते, कभी चची कोसतीं, यहाँ तक कि उसकी चचेरी बहन ललिता भी बात-बात पर
उसे गालियाँ देती । घर-भर में केवल उसके चचरे भाई गोकुल को ही उससे सहानुभूति थी ।
उसी की बातों में कुछ आत्मीयता, कुछ स्नेह का परिचय मिलता था । वह अपनी माता का
स्वभाव जानता था । अगर वह उसे समझाने की चेष्टा करता, या खुल्लम-खुल्ला मानी का
पक्ष लेता, तो मानी को एक घड़ी घर में रहना कठिन हो जाता । इसलिए उसकी सहानुभूति
मानी ही को दिलासा देने तक रह जाती थी ।
वह कहता– बहन , मुझे कहीं नौकर हो जाने दो, फिर तुम्हारे कष्टों का अन्त हो जायगा
। तब देखूँगा कौन तुम्हें तिर्छी आँखें से देखता है । जब तक पढ़ता हूँ, तभी तक
तुम्हारे बुरे दिन हैं । मानी ये स्नेह में डूबी बातें सुनकर पुलकित हो जाती और
उसका रोआँ-रोआँ गोकुल को आशीर्वाद देने लगता ।

(2)

आज ललिता का विवाह है । सबेरे से ही मेहमानों का आना शुरू हो गया है । गहनों की
झनकार से घर गूँज रहा है । मानी भी मेहमानों को देख-देख कर खुश हो रही है । उसकी
देह पर कोई आभूषण नहीं है और न उसे सुन्दर कपड़े ही दिये गये हैं, फिर भी उसका मुख
प्रसन्न है ।
आधी रात हो गई थी । विवाह का मुहुर्त निकट आ गया । जनवासे से चढ़ावे की चीजें आयीं
सभी औरतें उत्सुक हो-होकर उन चीजों को देखने लगीं । ललिता को आभूषण पहिनाये जाने
लगे । मानी के हृदय में बड़ी इच्छा हुई कि जाकर वधू को देखे । अभी कल जो बालिका थी
उसे आज वधू-वेश में देखने की इच्छा न रोक सकी । वह मुस्कराती हुई कमरे में घुसी।
सहसा उसकी चाची ने झिड़ककर कहा–तुझे यहाँ किसने बुलाया था, निकल जा यहाँ से !
मानी ने बड़ी-बड़ी यातनाएँ सही थीं ; पर आज की वह झिड़की उसके हृदय में बाण की तरह
चुभ गई । उसका मन उसे धिक्कारने लगा । `तेरे छिछोरेपन का यही पुरस्कार है, यहाँ
सुहागिनों के बीच में तेरे आने की क्या जरूरत थी ।’ वह खिसीयाई हुई कमरे से निकली
और एकांत में बैठकर रोने के लिए ऊपर जाने लगी । सहसा जीने पर उसकी इन्द्रनाथ से मुठ
भेड़ हो गई इन्द्रनाथ गोकुल का सहपाठी और परम मित्र था । वह भी न्यौते में आया हुआ
था । इस वक्त गोकुल को खोजने के लिए ऊपर आया था । मानी को वह दो-एक बार देख चुका
था और यह भी जानता था कि यहाँ उसके साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया जाता है । चची की
बातों की भनक उसके कान में भी पड़ गई थी । मानी को ऊपर जाते देखकर वह उसके चित्त का
भाव समझ गया और उसे सांत्वना देने के लिए ऊपर आया ; मगर दरवाजा भीतर से बन्द था ।
उसने किवाड़ की दरार से भीतर झाँका । मानी मेज के पास खड़ी रो रही थी । उसने धीरे
से कहा– मानी, द्वार खोल दो !
मानी उसकी आवाज सुनकर कोने में छिप गयी और गम्भीर स्वर में बोली – क्या है ?
इन्द्रनाथ ने गद्गद् स्वर में कहा–तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ मानी, खोल दो ।
यह स्नेह में डूबा हुआ विनय मानी के लिए अभूतपूर्व था । इस निर्दय संसार में कोई
उससे ऐसी विनती भी कर सकता है, इसकी उसने स्वप्न में भी कल्पना न की थी । मानी
ने काँपते हुए हाथों से द्वार खोल दिया ।इन्द्रनाथ झपटकर कमरे में घुसा, देखा कि छत
के पंखे के कड़े से एक रस्सी लटक रही है । उसका हृदय काँप उठा । उसने जेब से चाकू
निकाल कर रस्सी काट दी और बोला, क्या करने जा रही थी मानी ? जानती हो इस अपराध
का क्या दंड है ?
मानी ने गर्दन झुकाकर कहा–इस दंड से कोई और दंड कठोर हो सकता है ? जिसकी सूरत से
लोगों को घृणा हो, उसे मरने पर भी अगर कठोर दंड दिया जाय, तो मैं यही कहूँगी कि
ईश्वर के दरबार में न्याय का नाम भी नहीं है । तुम मेरी दशा का अनुभव नहीं कर
सकते ।
इन्द्रनाथ की आँखें सजल हो गयीं ! मानी की बातों में कितना कठोर सत्य भरा हुआ था ।
बोला – सदा ये दिन नहीं रहेंगे मानी । अगर तुम यह समझ रही हो कि संसार में तुम्हारा
कोई नहीं है तो यह तुम्हारा भ्रम है । संसार में कम-से-कम एक मनुष्य ऐसा है जिसे
तुम्हारे प्राण अपने प्राणों से भी प्यारे हैं !
सहसा गोकुल आता हुआ दिखायी दिया । मानी कमरे से निकल गयी । इन्द्रनाथ के शब्दों ने
उसके मन में एक तूफान-सा उठा दिया था । उसका क्या आशय है, यह उसकी समझ में
न आया । फिर भी आज उसे अपना जीवन सार्थक मालूम हो रहा था । जीवन में एक प्रकाश
का उदय हो गया ।

(3)

इन्द्रनाथ को वहाँ बैठे और मानी को कमरे से जाते देखकर गोकुल को खटक गया । उसकी
त्योरियाँ बदल गयीं । कठोर स्वर में बोला – तुम यहाँ कब आये ?
इन्द्रनाथ ने अविचलित भाव से कहा – तुम्हीं को खोजता हुआ यहाँ आया था । तुम यहाँ न
मिले तो नीचे लौटा जा रहा था । अगर मैं चला गया होता तो इस वक्त तुम्हें यह कमरा
बन्द मिलता और पंखे के कड़े में एक लाश लटकती हुई नजर आती ।
गोकुल ने समझा, यह अपने अपराध को छिपाने के लिए कोई बहाना निकाल रहा है । तीव्र कंठ
से बोला – तुम यह विश्वासघात करोगे, मुझे ऐसी आशा न थी ।
इंद्रनाथ का चेहरा लाल हो गया । वह आवेश में आकर खड़ा हो गया और बोला-न मुझे यह आशा
थी कि तुम मुझ पर इतना बड़ा लाँछन रख दोगे । मुझे न मालूम था कि तुम मुझे इतना नीच
और कुटिल समझते हो । मानी तुम्हारे लिए तिरस्कार की वस्तु हो, मेरे लिए श्रद्धा की
वस्तु है और रहेगी । मुझे तुम्हारे सामने अपनी सफाई देने की जरूरत नहीं है ; लेकिन
मानी मेरे लिए उससे कहीं पवित्र है, जितनी तुम समझते हो । मैं नहीं चाहता कि इस
वक्त तुमसे ये बातें कहूँ । इसके लिए और अनुकूल परिस्थितियों की राह देख रहा था;
लेकिन मुआमला आ पड़ने पर कहना ही पड़ रहा है । मैं यह तो जानता था कि मानी का
तुम्हारे घर में कोई आदर नहीं; लेकिन तुम लोग उसे इतना नीच और त्याज्य समझते हो, यह
आज तुम्हारी माता जी की बातें सुनकर मालूम हुआ । केवल इतनी-सी बात के लिए कि वह
चढ़ावे के गहने देखने चली गयी थी, तुम्हारी माता ने उसे इस बुरी तरह झिड़का, जैसे
कोई कुत्ते को भी न झिड़केगा । तुम कहोगे इसे मैं क्या करूँ, मैं कर ही क्या सकता
हूँ । जिस घर में एक अनाथ स्त्री पर इतना अत्याचार हो, उस घर का पानी पीना भी हराम
है । अगर तुमने अपनी माता को पहले ही दिन समझा दिया होता, तो आज यह नौबत न आती ।
तुम इस इलजाम से नहीं बच सकते । तुम्हारे घर में आज विवाह का उत्सव है, मैं
तुम्हारे माता-पिता से कुछ बातचीत नहीं कर सकता; लेकिन तुमसे कहने में कोई संकोच
नहीं है कि मैं मानी को अपनी जीवन-सहचरी बनाकर अपने को धन्य समझूँगा । मैंने समझा
था अपना कोई ठिकाना करके तब यह प्रस्ताव करूँगा, पर मुझे भय है कि और विलम्ब करने
में शायद मानी से हाथ धोना पड़े;
इसलिए तुम्हें और तुम्हारे घरवालों को चिन्ता से मुक्त करने के लिए मैं आज ही वह
प्रस्ताव किये देता हूँ ।
गोकुल के हृदय में इन्द्रनाथ के प्रति ऐसी श्रद्धा कभी न हुई थी । उस पर ऐसा सन्देह
करके वह बहुत ही लज्जित हुआ । उसने यह अनुभव भी लिया कि माता के भय से मैं मानी
के विषय में तटस्थ रहकर कायरता का दोषी हुआ हूँ । यह केवल कायरता थी और कुछ
नहीं । कुछ झेंपता हुआ बोला – अगर अम्माँ ने मानी को इस बात पर झिड़का तो यह उनकी
मूर्खता है, मैं उनसे अवसर मिलते ही पूछूँगा ।
इन्द्रनाथ – अब पूछने-पाछने का समय निकल गया । मैं चाहता हूँ कि तुम मानी से इस
विषय में सलाह करके मुझे बतला दो ! मैं नहीं चाहता कि अब वह यहाँ क्षण-भर भी रहे ।
मुझे आज मालूम हुआ कि वह गर्विणी प्रकृति की स्त्री है और सच पूछो तो मैं उसके
स्वभाव पर मुग्ध हो गया हूँ । ऐसी स्त्री अत्याचार नहीं सह सकती !
गोकुल ने डरते डरते कहा – लेकिन तुम्हें मालूम है – वह विधवा है ।
जब हम किसी के हाथों अपना असाधारण हित होते देखते हैं तो हम अपनी सारी बुराइयाँ
उसके सामने खोलकर रख देते हैं । हम उसे दिखाना चाहते हैं कि हम आपकी इस कृपा के
सर्वथा अयोग्य नहीं हैं ।
इन्द्रनाथ ने मुस्कराकर कहा – जानता हूँ, सुन चुका हूँ और इसीलिए तुम्हारे बाबूजी
से कुछ कहने का मुझे अब तक साहस नहीं हुआ; लेकिन न जानता तो भी इसका मेरे निश्चय
पर कोई असर न पड़ता । मानी विधवा ही नहीं, अछूत हो, उससे भी गई-बीती अगर कुछ हो
सकती है, वह भी हो, फिर भी मेरे लिए वह रमणी-रत्न है । हम-मोटे कामों के लिए तजर्बे
कार आदमी खोजते हैं, मगर जिसके साथ हमें जीवन-यात्रा करनी है, उसमें तजर्बे का होना
ऐब समझते हैं । मैं न्याय का गला घोटनेवालों में नहीं हूँ ! विपत्ति से बढ़कर
तजर्बा सिखानेवाला कोई विद्यालय आज तक नहीं खुला । जिसने इस विद्यालय में डिग्री ले
ली उसके हाथों में हम निश्चिन्त होकर जीवन की बागडोर दे सकते हैं । किसी रमणी का
विधवा होना मेरी आँखों में दोष नहीं, गुण है ।
गोकुल ने प्रसन्न होकर कहा – लेकिन तुम्हारे घर के लोग ?
इन्द्रनाथ ने दृढ़ता से कहा – मैं अपने घरवालों को इतना मूर्ख नहीं समझता कि इस
विषय में आपत्ति करें; लेकिन वे आपत्ति करें तो मैं अपनी किस्मत अपने हाथ में ही
रखना पसन्द करता हूँ । मेरे बड़ों को मुझ पर अनेकों अधिकार हैं । बहुत-सी बातों में
उनकी इच्छा को कानून समझता हूँ; लेकिन मैं किसी से दबना नहीं चाहता; मैं इस गर्व का
आनन्द उठाना चाहता हूँ कि मैं स्वयं अपने जीवन का निर्माता हूँ !
गोकुल ने कुछ शंकित होकर कहा – और अगर मानी न मंजूर करे ।
इन्द्रनाथ को यह शंका बिलकुल निर्मूल जान पड़ी । बोले – तुम इस समय बच्चों की-सी
बातें कर रहे हो गोकुल । यह मानी हुई बात है कि मानी आसानी से मंजूर न करेगी । वह
इस में ठोकरें खायेगी, झिड़कियाँ सहेगी, गालिया सुनेगी; पर इसी घर में रहेगी ।
युगों के संस्कारों को मिटा देना आसान नहीं है, लेकिन में उसको राजी करना पड़ेगा ।
उसके मन से संचित संस्कारों को निकालना पड़ेगा । मैं विधवाओं के पुनर्विवाह के पक्ष
में नहीं हूँ । मेरा ख्याल है कि पतिव्रत का यह अलौकिक आदर्श संसार का अमूल्य रत्न
है और हमें बहुत सोच-समझकर उस पर आघात करना चाहिए; लेकिन मानी के विषय में वह
बात ही नहीं उठती । प्रेम और भक्ति नाम से नहीं, व्यक्ति से होती है । जिस पुरुष की
उसने सूरत भी नहीं देखी, उससे उसे प्रेम नहीं हो सकता । केवल रस्म की बात है । इस
आडम्बर की, इस दिखावे की हमें परवाह न करनी चाहिए । देखो, शायद कोई तुम्हें बुला
रहा है । मैं भी चलता हूँ । दो -तीन दिन में फिर मिलूँगा ; मगर ऐसा न हो कि तुम
संकोच में पड़कर सोचते-विचारते रह जाओ और दिन निकलते चले जायें ।
गोकुल ने उसके गले में हाथ डाल कर कहा – मैं परसों खुद ही आऊँगा ।

(4)

बारात बिदा हो गयी थी । मेहमान भी रुखसत हो गये थे । रात के नौ बज रहे थे । विवाह
के बाद की नींद मशहूर है । घर के सभी लोग सरेशाम से सो रहे थे । कोई चारपाई पर, कोई
तख्त पर, कोई जमीन पर, जिसे जहाँ जगह मिल गयी, वहीं सो रहा था ।
केवल मानी घर की देख-भाल कर रही थी , और ऊपर गोकुल अपने कमरे में बैठा हुआ समाचार
पत्र पढ़ रहा था । सहसा गोकुल ने पुकारा – मानी, एक ग्लास ठंडा पानी तो लाना, बड़ी
प्यास लगी है ।
मानी पानी लेकर ऊपर गयी और मेज पर पानी रखकर लौटना चाहती थी कि गोकुल ने कहा–
जरा मानी, तुमसे कुछ कहना है ।
मानी ने कहा – अभी फुरसत नहीं है भाई, सारा घर सो रहा है । कहीं कोई घुस आये तो
लोटा-थाली भी न बचे !
गोकुल ने कहा – घुस आने दो, मैं तुम्हारी जगह होता तो चोरों से मिलकर चोरी करवा
देता । मुझे इसी वक्त इन्द्रनाथ से मिलना है । मैंने उससे आज मिलने का वचन दिया है-
देखो संकोच मत करना, जो बात पूछ रहा हूँ उसका जल्द उत्तर देना । देर होगी तो वह
घबरायेगा । इन्द्रनाथ को तुमसे प्रेम है, यह तुम जानती हो न ?
मानी ने मुँह फेर कर कहा – यही बात कहने के लिए मुझे बुलाया था । मैं कुछ नहीं
जानती ।
गोकुल – खैर, यह वह जाने और तुम जानो । वह तुमसे विवाह करना चाहता है । वैदिक
रीति से विवाह होगा । तुम्हें स्वीकार है ?
मानी की गर्दन शर्म से झुक गई । वह कुछ जवाब न दे सकी ।
गोकुल ने फिर कहा – दादा और अम्माँ से यह बात नहीं कही गयी, इसका कारण तुम जानती
ही हो । वह तुम्हें घुड़कियाँ दे-देकर, जला जलाकर चाहे मार डालें, पर विवाह करने की
सम्मति कभी न देंगे । इससे उनकी नाक कट जायगी । इसलिए अब इसका निर्णय तुम्हारे ऊपर
है । मैं तो समझता हूँ, तुम्हें स्वीकार कर लेना चाहिए । इन्द्रनाथ तुमसे प्रेम तो
करता है ही; यों भी निष्कलंक चरित्र का आदमी है और बला का दिलेर । भय तो उसे छू ही
नहीं गया । मुझे तुम्हें सुखी देखकर सच्चा आनन्द होगा !
मानी के हृदय में एक वेग उठ रहा था, मगर मुँह से आवाज न निकली । गोकुल ने अबकी
खीझकर कहा–देखो मानी, यह चुप रहने का समय नहीं है, सोचती क्या हो ?
मानी ने काँपते हुए स्वर में कहा–हाँ !
गोकुल के हृदय का बोझ हलका हो गया । मुसकराने लगा । मानी शर्म के मारे वहाँ से भाग
गई ।

(5)

शाम को गोकुल ने अपनी माँ से कहा – अम्माँ, इन्द्रानाथ के घर आज कोई उत्सव है ।
उसकी माता अकेली घबड़ा रही थीं कि कैसे काम होगा ? मैंने कहा, मानी को भेज दूँगा,
तुम्हारी आज्ञा हो तो मानी को पहुँचा दूँ । कल-परसों तक चली आयेगी ।
मानी उसी वक्त वहाँ आ गयी । गोकुल ने उसकी ओर कनखियों से ताका । मानी लज्जा से गड़
गयी । भागने का रास्ता न मिला ।
माँ ने कहा – मुझसे क्या पूछते हो, वह जाय ले जाओ !
गोकुल ने कहा – कपड़े पहन कर तैयार हो जाओ, तुम्हें इन्द्रनाथ के घर चलना है ।
मानी ने आपत्ति की – मेरा जी अच्छा नहीं है, मैं न जाऊँगी ।
गोकुल की माँ ने कहा – चली क्यों नहीं जाती, क्या वहाँ कोई पहाड़ खोदना है ।
मानी एक सफेद साड़ी पहनकर ताँगे पर बैठी, तो उसका हृदय काँप रहा था और बार-बार
आँखों में आँसू भर आते थे, उसका हृदय बैठा जाता था, मानो नदी में डूबने जा रही हो ।
ताँगा कुछ दूर निकल गया तो उसने गोकुल से कहा – भैया, मेरा जी न जाने कैसा हो रहा
है, घर लौट चलो, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ ।
गोकुल ने कहा – तू पागल है । वहाँ सब लोग तेरी राह देख रहे हैं और तू कहती है लौट
चलो ।
मानी – मेरा मन कहता है कोई अनिष्ट होने वाला है ।
गोकुल – और मेरा मन कहता है तू रानी बनने जा रही है ।
मानी – दस-पाँच दिन ठहर क्यों नहीं जाते । कह देना मानी बीमार है ।
गोकुल – पागलों की-सी बातें न करो ।
मानी – लोग कितना हँसेंगे ?
गोकुल – मैं शुभ कार्य में किसी की हँसी की परवा नहीं करता ।
मानी – अम्माँ तुम्हें घर में घुसने न देंगी । मेरे कारण तुम्हें भी झिड़कियाँ
मिलेंगी ।
गोकुल – इसकी कोई परवा नहीं है । उनकी तो यह आदत ही है ।
ताँगा पहुँच गया । इन्द्रनाथ की माता विचारशील महिला थीं । उन्होंने आकर वधू को
उतारा और भीतर ले गयीं ।

(6)

गोकुल यहाँ से घर चला तो ग्यारह बज रहे थे । एक ओर तो शुभ कार्य के पूरा करने का
आनन्द था, दूसरी ओर भय था कि कल मानी न जायगी तो लोगों को क्या जवाब दूँगा ।
उसने निश्चय किया चलकर सब साफ-साफ कह दूँ । छिपाना व्यर्थ है । आज नहीं कल, कल
नहीं परसों तो सब कुछ कहना ही पड़ेगा । आज ही क्यों न कह दूँ ।
यह निश्चय करके वह घर में दाखिल हुआ ।
माता ने किवाड़ खोलते हुए कहा – इतनी रात तक क्या करने लगे ? उसे भी क्यों न लेते
आए, कल सबेरे चौका-बरतन कौन करेगा ?
गोकुल ने सिर झुकाकर कहा–वह तो अब शायद लौटकर न आवे अम्माँ । उसके वहीं रहने का
प्रबन्ध हो गया है ।
माता ने आँख फाड़कर कहा–क्या बकता है, भला वह वहाँ कैसे रहेगी ?
गोकुल – इन्द्रनाथ से उसका विवाह हो गया है ।
माता मानो आकाश से गिर पड़ीं । उन्हें कुछ सुध न रही कि मेरे मुँह से क्या निकल
रहा । कुलांगार, भड़वा, हरामजादा, और न जाने क्या-क्या कहा । यहाँ तक कि गोकुल का
धैर्य चरम सीमा का उल्लंघन कर गया । उसका मुँह लाल हो गया, त्योरियाँ चढ़ गयीं ।
बोला-अम्माँ, बस करो, अब मुझमें इससे ज्यादा सुनने की सामर्थ्य नहीं है । अगर मैंने
कोई अनुचित कर्म किया होता, तो आपकी जूतियाँ खाकर भी सिर न उठाता; मगर मैंने कोई
अनुचित कर्म नहीं किया । मैंने वही किया जो ऐसी दशा में मेरा कर्तव्य था और जो हर
एक भले आदमी को करना चाहिए । तुम मूर्ख हो, तुम्हें कुछ नहीं मालूम कि समय की
क्या प्रगति है । इसलिए अब तक मैंने धैर्य के साथ तुम्हारी गालियाँ सुनीं ।
तुमने, और मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि पिता जी ने भी, मानी के जीवन को नार
कीय बना रखा था । तुमने उसे ऐसी-ऐसी ताड़नाएँ दीं जो कोई अपने शत्रु को भी न देगा ।
इसीलिए कि वह तुम्हारी आश्रित थी ? इसीलिए न कि वह अनाथिनी थी ? अब वह तुम्हारी
गालियाँ खाने न आवेगी । जिस दिन तुम्हारे घर विवाह का उत्सव हो रहा था, तुम्हारे ही
कठोर वाक्य से आहत होकर वह आत्महत्या करने जा रही थी । इन्द्रनाथ उस समय ऊपर न
पहुँच जाते तो आज हम, तुम और सारा घर हवालात में बैठे होते ।
माता ने आँखें मटकाकर कहा – आहा ! कितने सपूत बेटे हो तुम कि सारे घर को संकट से
बचा लिया ।क्यों न हो ! अभी बहन की बारी है । कुछ दिन में मुझे ले जाकर किसी के गले
बाँध आना । फिर तुम्हारी चाँदी हो जायगी । यह रोजगार सबसे अच्छा है । पढ़-लिखकर
क्या करोगे ।
गोकुल मर्म-वेदना से तिलमिला उठा । व्यथित कंठ से बोला – ईश्वर न करे कि कोई बालक
तुम-जैसी माता के गर्भ से जन्म ले । तुम्हारा मुँह देखना भी पाप है ।
यह कहता हुआ वह घर से निकल पड़ा और उन्मत्तों की तरह एक तरफ चल खड़ा हुआ । जोर
के झोंके चल रहे थे; पर उसे ऐसा मालूम हो रहा था कि साँस लेने के लिए हवा नहीं है ।

(7)

एक सप्ताह बीत गया; पर गोकुल का कहीं पता नहीं । इन्द्रनाथ को बम्बई में एक जगह मिल
गयी थी । वह वहाँ चला गया था । वहाँ रहने का प्रबन्ध करके वह अपनी माता को तार देगा
और तब सास और बहू वहाँ चली जायँगी । वंशीधर को पहले संदेह हुआ कि गोकुल इन्द्रनाथ
के घर छिपा होगा; पर जब वहाँ पता न चला तो उन्होंने सारे शहर में खोज-पूछ शुरु की ।
जितने मिलने वाले, मित्र, स्नेही, सम्बन्धी थे, सभी के घर गये; पर सब जगह से साफ
जवाब पाया । दिन भर दौड़-धूप कर शाम को घर आते तो स्त्री को आड़े हाथों लेते – और
कोसों लड़के को, पानी पी-पीकर कोसो । न जाने तुम्हें कभी बुद्धि आयेगी भी या नहीं ।
गयी थी चुड़ैल, जाने देती । एक बोझ सिर से टला ।
एक महरी रख लो काम चल जायगा । जब वह न थी, तो घर क्या भूखों मरता था ।
विधवाओं के पुनर्विवाह चारों ओर तो हो रहे हैं, यह कोई अनहोनी बात नहीं है । हमारे
वश की बात होती तो इन विधवा-विवाह के पक्षपातियों को देश से निकाल देते, शाप देकर
जला देते; लेकिन यह हमारे वश की बात नहीं । फिर तुमसे इतना भी न हो सका कि मुझसे
तो पूछ लेतीं । मैं जो उचित समझता, करता । क्या तुमने यह समझा था, मैं दफ्तर से लौट
कर आऊँगा ही नहीं, वहीं मेरी अन्त्येष्ठी हो जायगी । बस लड़के पर टूट पड़ी । अब
रोओ, खूब दिल खोलकर ।
संध्या हो गयी थी । वंशीधर स्त्री को फटकारें सुनाकर द्वार पर उद्वेग की दशा में
टहल रहे थे । रह-रहकर मानी पर क्रोध आता था । इसी राक्षसी के कारण मेरे घर का
सर्वनाश हुआ । न जाने किस बुरी साइत में आयी कि घर को मिटाकर छोड़ा ! वह न आयी
होती, तो आज क्यों बुरे दिन देखने पड़ते । कितना होनहार, कितना प्रतिभाशाली लड़का
था । न जाने कहाँ गया ।
एकाएक एक बुढ़िया उनके समीप आयी और बोली – बाबू साहब, यह खत लायी हूँ । ले
कीजिए ।
वंशीधर ने लपककर बुढ़िया के हाथ से पत्र ले लिया; उनकी छाती आशा से धक्-धक् करने
लगी । गोकुल ने शायद यह पत्र लिखा होगा । अँधेरे में कुछ न सूझा । पूछा–कहाँ से
लायी है ?
बुढ़िया ने कहा–वही जो बाबू हुसेनगंज में रहते हैं; जो बंबई में नौकर हैं, उन्हीं
की बहू ने भेजा है ।
वंशीधर ने कमरे में जाकर लैम्प जलाया और पत्र पढ़ने लगे । मानी का खत था । लिखा था–
`पूज्य चाचा जी, अभागिनी मानी का प्रणाम स्वीकार कीजिए ।
मुझे यह सुनकर अत्यन्त दुःख हुआ कि गोकुल भैया कहीं चले गये और अब तक उनका पता
नहीं है । मैं ही इसका कारण हूँ । यह कलंक मेरे ही मुख पर लगना था, वह भी लग गया ।
मेरे कारण आपको इतना शोक हुआ इसका मुझे बहुत दुःख है ; मगर भैया आवेंगे अवश्य, इसका
मुझे विश्वास है । मैं इसी नौ बजनेवाली गाड़ी से बंबई जा रही हूँ ।
मुझसे जो कुछ अपराध हुए हैं, उन्हें क्षमा कीजिए और चाची से मेरा प्रणाम कहिएगा ।
मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि गोकुल भैया सकुशल घर लौट आवें । ईश्वर की इच्छा
हुई तो भैया के विवाह में आपके चरणों के दर्शन करूँगी ।
वंशीधर ने पत्र को फाड़कर पुर्जेपुर्जे कर डाला । घड़ी में देखा तो आठ बज रहे थे ।
तुरन्त कपड़े पहने, सड़क पर आकर एक्का किया और स्टेशन चले ।

(8)

बंबई मेल प्लेटफार्म पर खड़ा था । मुसाफिरों में भगदड़ मची हुई थी । खोंचे वालों की
चीख-पुकार से कान में पड़ी आवाज न सुनाई देती थी । गाड़ी छूटने में थोड़ी ही देर
थी । मानी और उसकी सास एक जनाने कमरे में बैठी हुई थीं । मानी सजल नेत्रों से सामने
ताक रही थीं । अतीत चाहे दुःखद ही क्यों न हो, उसकी स्मृतियाँ मधुर होती हैं । मानी
आज उन बुरे दिनों को स्मरण करके सुखी हो रही थी । गोकुल से अब न जाने कब भेंट
होगी । चाचाजी आ जाते तो उनके दर्शन कर लेती । कभी कभी बिगड़ते थे तो क्या, उसके
भले ही के लिए डाँटते थे ! वह आवेंगे नहीं । अब तो गाड़ी छूटने में थोड़ी ही देर
है । कैसे आवें, समाज में हलचल न मच जायगी । भगवान की इच्छा होगी, तो अब की जब
यहाँ आऊँगी तो जरूर उनके दर्शन करूँगी ।
एकाएक उसने लाला वंशीधर को आते देखा । वह गाड़ी से निकलकर बाहर खड़ी हो गयी और चाचा
जी की ओर बड़ी । उनके चरण पर गिरना चाहती थी कि वह पीछे हट गये और आँखें निकालकर
बोले – मुझे मत छू, दूर रह, अभागिनी कहीं की । मुँह में कालिख लगाकर मुझे पत्र
लिखती है । तुझे मौत भी नहीं आती ! तूने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया । आज तक
गोकुल का पता नहीं है । तेरे ही कारण वह घर से निकला और तू अभी तक मेरी छाती पर
मुँग दलने को बैठी है । तेरे लिए क्या गंगा में पानी नहीं है ? मैं तुझे ऐसी कुलटा,
ऐसी हरजाई समझता, तो पहले दिन ही तेरा गला घोंट देता । अब मुझे अपनी भक्ति दिखलाने
चली है ! तुझ जैसी पापिष्ठाओं का मरना ही अच्छा है, पृथ्वी का बोझ कम हो जायगा ।
प्लेटफार्म पर सैकड़ों आदमियों की भीड़ लग गयी थी, और वंशीधर निर्लज्ज भाव से
गालियोँ की बौछार कर रहे थे । किसी की समझ में न आता था, क्या माजरा है; पर मन में
सब लाला को धिक्कार रहे थे ।
मानी पाषाण-मूर्ति के समान खड़ी थी । मानो वहीं जम गयी हो । उसका सारा अभिमान चूर-
चूर हो गया । ऐसा जी चाहता था, धरती फट जाय और मैं समा जाऊँ, कोई वज्र गिराकर
उसके जीवन–अधम जीवन–का अन्त कर दे । इतने आदमियों के सामने उसका पानी उतर
गया ! उसकी आँखों से आँसू की एक बूँद भी न निकली । हृदय में आँसू न थे । उसकी जगह
एक दावानल-सा दहक रहा था जो मानो वेग से मतिष्क की ओर बढ़ता चला जाता था । संसार
में कौन जीवन अधम होगा !
सास ने पुकारा – बहू, अन्दर आ जाओ ।

(9)

गाड़ी चली तो माता ने कहा – ऐसा बेशर्म आदमी मैंने नहीं देखा । मुझे तो ऐसा क्रोध आ
रहा था कि उसका मुँह नोच लूँ ।
मानी ने सिर ऊपर न उठाया ।
माता फिर बोली – न जाने इन सड़ियलों को कब बुद्धि आयेगी, अब तो मरने के दिन भी आ
गये । पूछो, तेरा लड़का भाग गया तो हम क्या करें; अगर ऐसे पापी न होते तो यह वज्र
ही क्यों गिरता ।
मानी ने फिर मुँह न खोला । शायद उसे कुछ सुनाई न देता था । शायद उसे अपने अस्तित्व
का ज्ञान भी न था । वह टकटकी लगाये खिड़की की ओर ताक रही थी । उस अन्धकार में उसे
न जाने क्या सूझ रहा था ।
कानपुर आया । माता ने पूछा – बेटी कुछ खायेगी ? थोड़ी सी मिठाई खा लो ; दस बज गये ।
मानी ने कहा – अभी तो भूख नहीं है अम्माँ, फिर खा लूँगी ।
माता सोई । मानी भी लेटी; पर चचा की वह सूरत आँखों के सामने खड़ी थी और उनकी बातें
कानों में गहूँज रही थीं – आह ! मैं इतनी नीच हूँ, ऐसी पतित, कि मेरे मर जाने से
पृथ्वी का भार हल्का हो जायगा ! क्या कहा था, तू अपने माँ-बाप की बेटी है तो फिर
मुँह मत दिखाना । न दिखाऊँगी जिस मुँह पर कालिमा लगी हुई हो उसे किसी को दिखाने
की इच्छा भी नहीं है ।
गाड़ी अन्धकार को चीरती हुई चली जा रही थी । मानी ने अपना ट्रन्क खोला और अपने
आभूषण निकाल कर उसमें रख दिये । फिर इन्द्रनाथ का चित्र निकाल कर उसे देर तक
देखती रही । उसकी आँखों में गर्व की एक झलक-सी दिखाई दी । उसने तस्वीर रख दी और
आप-ही-आप – नहीं-नहीं, मैं तुम्हारे जीवन को कलंकित नहीं कर सकती । तुम देवतुल्य हो
तुमने मुझ पर दया की है ! मैं अपने पूर्व-संस्कारों का प्रायश्चित कर रही थी ।तुमने
मुझे उठाकर हृदय से लगा लिया ; लेकिन मैं तुम्हें कलंकित न करूँगी । तुम्हें मुझसे
प्रेम है । तुम मेरे लिए अनादर, अपमान निन्दा सब सह लोगे; पर मैं तुम्हारे जीवन का
भार न बनूँगी ।
गाड़ी अन्धकार को चीरती चली जा रही थी । मानी आकाश की ओर इतनी देर तक देखती रही कि
सारे तारे अदृश्य हो गये और अन्धकार में उसे अपनी माता का स्वरूप दिखाई दिया – ऐसा
उज्ज्वल, ऐसा प्रत्यक्ष कि उसने चौंककर आँखें बन्द कर लीं । फिर कमरे के अन्दर देखा
तो माता जी सो रहीं थीं ।

(10)

न जाने कितनी रात गुजर चुकी थी । दरवाजा खुलने की आहट से माता जी की आँख खुल गयी ।
गाड़ी तेजी से चली जा रही थी; मगर बहू का पता न था । वह आँखें मलकर उठ बैठीं और
पुकारा – बहू ! बहू ! कोई जवाब न मिला ।
उनका हृदय धक्-धक् करने लगा । ऊपर के बर्थ पर नजर डाली, पेशाब खाने में देखा,
बेंचों के नीचे देखा, बहू कहीं न थी । तब वह द्वार पर आकर खड़ी हो गयी । शंका हुई,
यह द्वार किसने खोला ? कोई गाड़ी में तो नहीं आया ! उनका जी घबड़ाने लगा । उन्होंने
किवाड़ बन्द कर दिये और जोर-जोर से रोने लगीं । किससे पूछें ? डाक गाड़ी अब न जाने
कितनी देर में रुकेगी । कहती थी, बहू मरदानी गाड़ी में बैठो । पर मेरा कहना न
माना । कहने लगी, अम्माँ जी आपको सोने की तकलीफ होगी । यही आराम दे गयी ?
सहसा उसे खतरे की जंजीर याद आयी । उसने जोर-जोर से कई बार जंजीर खींची । कई
मिनट के बाद गाड़ी रुकी । गार्ड आया । पड़ोस के कमरे से दो चार आदमी और भी आये ।
फिर लोगों ने सारा कमरा तलाश किया । नीचे तख्ते को ध्यान से देखा । रक्त का कोई
चिह्न न था ।
असबाब की जाँच की । बिस्तर, सन्दूक, सन्दूकची, बरतन सब मौजूद थे । ताले भी सबके
बन्द थे । कोई चीज गायब न थी । अगर बाहर से कोई आदमी आता तो चलती गाड़ी से जाता
कहाँ? एक स्त्री को लेकर गाड़ी से कूद जाना असम्भव था । सब लोग इन लक्षणों से इसी
नतीजे पर पहुँचे कि मानी द्वार खोलकर बाहर झाँकने लगी होगी और मुठिया हाथ से छूट
जाने के कारण गिर पड़ी होगी । गार्ड भला आदमी था । उसने नीचे उतरकर एक मील तक सड़क
के दोनों तरफ तलाश किया । मानी का कोई निशान न मिला । रात को इससे ज्यादा और क्या
किया जा सकता था । माता जी को कुछ लोग आग्रह-पूर्वक एक मरदाने डब्बे में ले गये ।
यह निश्चय हुआ कि माता जी अगले स्टेशन पर उतर पड़े और सबेरे इधर-उधर दूर तक देख-भाल
की जाय । विपत्ति में हम परमुखापेक्षी हो जाते हैं । माता जी कभी इसका मुँह देखती,
कभी उसका । उनकी याचना से भरी हुई आँखें मानो सबसे कह रही थीं – कोई मेरी बच्ची
को खोज क्यों नहीं लाता ? हाय ! अभी तो बेचारी की चूँदरी भी नहीं मैली हुई । कैसे-
कैसे साधों और अरमानों से भरी पति के पास जा रही थी ! कोई उस दुष्ट वंशीधर से जाकर
कहता क्यों नहीं – ले तेरी मनोभिलाषा पूरी हो गयी – जो तू चाहता था, वह पूरा हो
गया । क्या अब भी तेरी छाती नहीं जुड़ाती ।
वृद्धा बैठी रो रही थी और गाड़ी अन्धकार को चीरती चली गयी ।

(11)

रविवार का दिन था । संध्या समय इन्द्रनाथ दो-तीन मित्रों के साथ अपने घर की छत पर
बैठा हुआ था । आपस में हास-परिहास हो रहा था । मानी का आगमन इस परिहास का विषय था ।
एक मित्र बोले – क्यों इन्द्र , तुमने तो वैवाहिक जीवन का कुछ अनुभव किया है, हमें
क्या सलाह देते हो ? बनायें कहीं घोंसला, या यों ही डालियों पर बैठे-बैठे दिन काटें
पत्र-पत्रिकाओं को देखकर तो यही मालूम होता है कि वैवाहिक जीवन और नरक में कुछ
थोड़ा ही-सा अन्तर है ।
इन्द्रनाथ ने मुस्कराकर कहा–यह तो तकदीर का खेल है भाई, सोलहों आना तकदीर का ।
अगर एक दशा में वैवाहिक जीवन नरक-तुल्य है, तो दूसरी दशा में स्वर्ग से कम नहीं ।
दूसरे मित्र बोले – इतनी आजादी तो भला क्या रहेगी ?
इन्द्रनाथ – इतनी क्या, इसका शतांश भी न रहेगी । अगर तुम रोज सिनेमा देखकर बारह बजे
घर लौटना चाहते हो, नौ बजे सोकर उठना चाहते हो और दफ्तर से चार बजे लौटकर ताश
खेलना चाहते हो, तो तुम्हें विवाह करने से कोई सुख न होगा । और जो हर महीने सूट
बनवाते हो, तब शायद साल भर में भी न बनवा सको ।
`श्रीमती जी तो आज रात की गाड़ी से आ रही है ?’
`हाँ मेल से । मेरे साथ चलकर उन्हें रिसीव करोगे न ?’
`यह भी पूछने की बात है ! अब घर कौन जाता है; मगर कल दावत खिलानी पड़ेगी ।’
सहसा तार के चपरासी ने आकर इन्द्रनाथ के हाथ में तार का लिफाफा रख दिया ।
इन्द्रनाथ का चेहरा खिल उठा । झट तार खोलकर पढ़ने लगा । एकबार पढ़ते ही उसका हृदय
धक् से हो गया, साँस रुक गयी, सिर घुमने लगा । आँखों की रोशनी लुप्त हो गयी, जैसे
विश्व पर काला परदा पड़ गया हो । उसने तार को मित्रों के सामने फेंक दिया और दोनों
हाथों से मुँह ढ़ाँपकर फूट-फूटकर रोने लगा । दोनों मित्रों ने घबड़ाकर तार उठा लिया
और उसे पढ़ते ही हतबुद्धि से हो दीवार की ओर ताकने लगे । क्या सोच रहे थे और क्या
हो गया !
तार में लिखा था–मानी गाड़ी से कूद पड़ी । उसकी लाश लालपुर से तीन मील पर पायी गयी
मैं लालपुर में हूँ । तुरन्त आओ ।
एक मित्र ने कहा – किसी शत्रु ने झूठी खबर न भेज दी हो ।
दूसरे मित्र ने कहा – हाँ, कभी-कभी लोग ऐसी शरारतें करते हैं ।
इन्द्रनाथ ने शून्य नेत्रों से उनकी ओर देखा; पर मुँह से कुछ बोले नहीं !
कई मिनट तीनों आदमी निर्वाक निस्पन्द बैठे रहे । एकाएक इन्द्रनाथ खड़े हो गये और
बोले – मैं इस गाड़ी से जाऊँगा ।
बम्बई से नौ बजे रात को गाड़ी छूटती थी । दोनों मित्रों ने चटपट बिस्तर आदि बाँधकर
तैयार कर दिया । एक ने बिस्तर उठाया, दूसरे ट्रंक । इंद्रनाथ ने चटपट कपड़े पहने
और स्टेशन चले । निराशा आगे थी; आशा रोती हुई पीछे ।

(12)

एक सप्ताह गुजर गया था । लाला वंशीधर दफ्तर से आकर द्वार पर बैठे ही थे कि
इन्द्रनाथ ने आकर प्रणाम किया । वंशीधर उसे देखकर चौंक पड़े, उसके अनपेक्षित आगमन
पर नहीं, उसकी विकृत दशा पर ; मानों वीतराग शोक सामने खड़ा हो, मानो कोई हृदय से
निकली हुई आह मूर्तिमान हो गयी हो ।
वंशीधर ने पूछा – तुम बम्बई चले गये थे न ?
इन्द्रनाथ ने जवाब दिया – जी हाँ, आज ही आया हूँ ।
वंशीधर ने तीखे स्वर में कहा – गोकुल को तो तुम ले बीते !
इन्द्रनाथ ने अपनी अँगूठी की ओर ताकते हुए कहा–वह मेरे घर पर हैं ।
वंशीधर के उदास मुख पर हर्ष का प्रकाश दौड़ गया । बोले-तो यहाँ क्यों नहीं आये ?
तुमसे कहाँ उसकी भेंट हुई ? क्या बम्बई चला गया था ?
`जी नहीं, कल मैं गाड़ी से उतरा तो स्टेशन पर मिल गये ।’
`तो, जाकर लिवा आओ न, जो किया अच्छा किया ।’
यह कहते हुए वह घर में दौड़े । एक क्षण में गोकुल की माथा ने उसे अन्दर बुलाया ।
वह अन्दर गया तो माता ने उसे सिर से पाँव तक देखा – तुम बीमार थे क्या भैया ?
चेहरा क्यों इतना उतरा हुआ है ?
इन्द्रनाथ ने कुछ उत्तर न दिया ।
गोकुल की माता ने पानी का लोटा रखकर कहा–हाथ मुँह धो डालो बेटा, गोकुल है तो अच्छी
तरह ? कहाँ रहा इतने दिन ! तब से सैकड़ों मन्नतें मान डालीं । आया क्यों नहीं ?
इन्द्रनाथ ने हाथ-मुँह धोते हुए कहा–मैंने तो कहा था चलो, लेकिन डर के मारे नहीं
आते ।
`और था कहाँ इतने दिन ?’
`कहते थे, देहातों में घूमता रहा ।’
`तो क्या तुम अकेले बम्बई से आये हो ?’
`जी नहीं, अम्माँ भी आयी हैं ।’
गोकुल की माता ने कुछ सकुचाकर पूछा – मानी तो अच्छी तरह है ?
इन्द्रनाथ ने हँसकर कहा–जी हाँ, अब वह बड़े सुख से हैं । संसार के बन्धनों से छूट
गयीं ।
माता ने विश्वास करके कहा – चल नटखट कहीं का । बेचारी को कोस रहा है, मगर
इतनी जल्द बम्बई से लौट क्यों आये !
इन्द्रनाथ ने मुस्कराते हुए कहा–क्या करता ! माता जी का तार बम्बई में मिला कि
मानी ने गाड़ी से कूदकर प्राण दे दिये ! वह लालपुर में पड़ी हुई थीं, दौड़ा हुआ आया
वहीं दाह-क्रिया की । आज घर चला आया । अब मेरा अपराध क्षमा कीजिए ।
वह और कुछ न कह सका । आँसुओं के वेग ने गला बन्द कर दिया । जेब से एक पत्र निकाल
कर माता, के सामने रखता हुआ बोला – उनके संदूक में यही पत्र मिला है ।
गोकुल की माता कई मिनट तक मर्माहत-सी जमीन की ओर ताकती रहीं । शोक और उससे अधिक
पश्चाताप ने सिर को दबा रक्खा था । फिर पत्र उठाकर पढ़ने लगी ।
`स्वामी !
जब यह पत्र आपके हाथों में पहुँचेगा तब तक मैं इस संसार से विदा हो जाऊँगी । मैं
बड़ी अभागिनी हूँ । मेरे लिए इस संसार में स्थान नहीं है । आपको भी मेरे कारण क्लेश
और निन्दा मिलेगी । मैंने सोचकलर देखा और यही निश्चय किया कि मेरे लिए मरना ही
अच्छा है । मुझ पर आपने जो दया की थी, उसके लिए आपको क्या प्रतिदान करूँ ? जीवन
मैंने कभी किसी वस्तु की इच्छा नहीं की; परन्तु मुझे दुःख है कि आपके चरणों पर सिर
रख कर न मर सकी । मेरी अन्तिम याचना है कि मेरे लिए आप शोक न कीजिएगा । ईश्वर
आपको सदा सुखी रक्खे ।’
माता जी ने पत्र रख दिया और आँखों से आँसू बहने लगे । बरामदे में निश्चित निस्पंद
खड़े थे और जैसे मानी लज्जानत उनके सामने खड़ी थी ।

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