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मिर्जा खुर्शेद का हाता क्लब भी है, कचहरी भी, अखाड़ा भी. दिन-भर जमघट लगा रहता है. मुहल्ले में अखाड़े के लिए कहीं जगह नहीं मिलती थी. मिर्जा ने एक छप्पर डलवाकर अखाड़ा बनवा दिया है. वहां नित्य सौ-पचास लड़न्तिए आ जुटते हैं. मिर्जाजी भी उनके साथ जोर करते हैं. मुहल्ले की पंचायतें भी यहीं होती हैं. मियां-बीबी और सास-बहू और भाई-भाई के झगड़े-टण्टे यहीं चुकाये जाते हैं. मुहल्ले के सामाजिक जीवन का यही केन्द्र है और राजनीतिक आन्दोलन का भी. आये दिन सभाएं होती रहती हैं.यहीं स्वयंसेवक टिकते हैं, यहीं उनके प्रोग्राम बनते हैं, यहीं से नगर का राजनीतिक सञ्चालन होता है पिछले जलसे में मालती नगर कांग्रेस कमेटी की सभानेत्री चुन ली गई है. तब से इस स्थान की रौनक और भी बढ़ गयी है. गोबर को यहां रहते साल भर हो गया. अब वह सीधा-सादा ग्रामीण युवक नहीं है.उसने बहुत कुछ दुनिया देख ली, और संसार का रंग-ढंग भी कुछ-कुछ समझने लगा है. मूल में वह अब भी देहाती है, पैसे को दांत से पकड़ता है, स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ता, और परिश्रम से जी नहीं चुराता, न कभी हिम्मत हारता है, लेकिन शहर की हवा उसे भी लग गयी है. उसने पहले महीने तो केवल मजूरी की और आधा पेट खाकर थोड़े रुपये बचा लिये. फिर वह कचालू और मटर और दही-बड़े के खोंचे लगाने लगा. इधर ज्यादा लाभ देखा, तो नौकरी छोड़ दी. गरमियों में शर्बत और बरफ की दुकान उठा दी ओर गरम चाय पिलाने लगा. अब उसकी रोजाना आमदनी ढाई-तीन रुपये से कम नहीं.उसने अंग्रेजी फैशन के बाल कटवा लिये हैं, महीन धोती और पम्प शू पहनता है. एक लाल उनी चादर खरीद ली और पान-सिगरेट का शौकीन हो गया है.सभाओं में आने-जाने से उसे कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है, राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है. सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा और लोक-निन्दा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है. आये दिन पंचायतों ने उसे निस्संकोच बना दिया है. जिस बात के पीछे वह यहां घर से दूर, मुंह छिपाये पड़ा हुआ है, उसी तरह की, बल्कि उस से भी कहीं निन्दास्पद बातें यहां नित्य हुआ करती हैं, और कोई भागता नहीं. फिर वही क्यों इतना डरे और मुंह चुराये? इतने दिनों में उसने एक पैसा भी घर नहीं भेजा.वह माता-पिता को रुपये-पैसे के मामले में इतना चतुर नहीं समझता. वे लोग तो रुपये पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे. दादा को तुरन्त गया करने की और अम्मां को गहने बनवाने की धुन सवार हो जायेगी. ऐसे व्यर्थ के कामों के लिए उसके पास रुपये नहीं हैं. अब वह छोटा मोटा महाजन है. पड़ोस के एक्के वालों और धोबियों को सूद पर रुपये उधार देता है. इस दस-ग्यारह महीने में ही उसने अपनी मेहनत और किफायत और पुरुषार्थ से अपना स्थान बना लिया है और अब झुनिया को यहीं लाकर रखने की बात सोच रहा है. तीसरे पहर का समय है. वह सड़क के नल पर नहाकर आया है और शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिर्जा खुर्शेद आकर द्वार पर खड़े हो गये. गोबर अब उनका नौकर नहीं है, पर अदब इसी तरह करता है और उनके लिए जान देने को तैयार रहता है. द्वार पर जाकर पूछा- क्या हुक्म है सरकार? मिर्जा ने खड़े खड़े कहा-तुम्हारे पास कुछ रुपये हो तो दे दो. आज तीन दिन से बोतल खाली पड़ी हुई है, जी बहुत बेचैन हो रहा है. गोबर ने इसके पहले भी दो तीन बार मिर्जाजी को रुपये दिये थे,पर अब तक वसूल न कर सका था.तकाजा करते डरता था और मिर्जाजी रुपये लेकर देना न जानते थे. उनके हाथ में रुपये टिकते ही न थे. इधर आये, उधर गायब. यह तो न कह सका, मैं रुपये न दूंगा या मेरे पास रुपये नहीं है, शराब की निन्दा करने लगा-आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते सरकार? क्या इसके पीने से कुछ फायदा होता है? मिर्जा ने कोठरी के अन्दर खाट पर बैठते हुए कहा-तुम समझते हो,मैं छोड़ना नहीं चाहता और शौक से पीता हूं मैं इसके बगैर जिन्दा नहीं रह सकता. तुम अपने रुपये के लिए न डरो, मैं एक-एक कौड़ी अदा कर दूंगा. गोबर अविचलित रहा-मैं सच कहता हूं मालिक, मेरे पास इस समय रुपये होते, तो आपसे इनकार करता? `दो रुपये भी नहीं दे सकते?’ `इस समय तो नहीं है.’ `मेरी अंगूठी गिरो रख लो.’ गोबर का मन ललचा उठा, मगर बात कैसे बदले? बोला-यह आप क्या कहते हैं मालिक, रुपये होते, तो आपको दे देता,अंगूठी की कौन बात थी मिर्जा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्रह भरकर कहा-मैं फिर तुमसे कभी न मांगूगा गोबर मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है. इस शराब की बदौलत मैंने लाखों की हैसियत बिगाड़ दी और भिखारी हो गया. अब मुझे भी जिद पड़ गयी है कि चाहे भीख मांगनी पड़े, इसे छोड़ूंगा नहीं. जब गोबर ने अबकी बार इनकार किया, तो मिर्जा साहब निराश होकर चले गये. शहर में उनके हजारों मिलनेवाले थे. कितने ही उनकी बदौलत बन गये थे. कितनों ही की गाढ़े समय पर मदद की थी,पर ऐसे से वह मिलना भी न पसन्द करते थे. उन्हें ऐसे हजारों लटके मालूम थे, जिससे वह समय-समय पर रुपयों का ढेर लगा देते थे,पर पैसे की उनकी निगाह में कोई कद्र न थी. उनके हाथ में रुपये जैसे काटते थे. किसी-न किसी बहाने उड़ाकर ही उनका चित्त शान्त होता था. गोबर आलू छीलने लगा. साल-भर के अन्दर ही वह इतना काइयां हो गया था और पैसा जोड़ने में इतना कुशल कि अचरज होता था. जिस कोठरी में वह रहता है, वह मिर्जा साहब ने दी है इस कोठरी और बरामदे का किराया बड़ी आसानी से पांच रुपया मिल सकता है. गोबर लगभग साल-भर से रहता है, लेकिन मिर्जा ने न कभी किराया मांगा, न उसने दिया. उन्हे शायद खयाल भी न था कि इस कोठरी का कुछ किराया भी मिल सकता है. थोड़ी देर में एक एक्केवाला रुपये मांगने आया. अलादीन नाम था, सिर घुटा हुआ, खिचड़ी दाढ़ी और काना. उसकी लड़की विदा हो रही थी. पांच रुपये की उसे जरूरत थी. गोबर ने एक आना रुपया सूद पर दे दिये. अलादीन ने धन्यवाद देते हुए कहा- भैया, अब बाल-बच्चों को बुला लो.कब तक हाथ से ठोंकते रहोगे? गोबर ने शहर के खर्च का रोना रोया-थोड़ी आमदनी में गृहस्थी कैसे चलेगी? अलादीन बीड़ी जलाता हुआ बोला-खरच अल्लाह देगा भैया1 सोचो, कितना आराम मिलेगा. मैं कहता हूं, जितना तुम अकेले खरच करते हो, उसी में गृहस्थी चल जायेगी. औरत के हाथों में बड़ी बरक्कत होती है. खुदा कसम जब मैं अकेला यहां रहता था, तो चाहे कितना ही कमाऊं, खा-पी सब बराबर. बीड़ी तमाखू को भी पैसा न रहता था. उस पर हैरानी. थके-मांदे आओ, तो घोड़े को खिलाओ और टहलाओ. फिर नानबाई की दुकान पर दौड़ो. नाक में दम आ गया. जब से घरवाली आ गयी, इसी कमाई में उसकी रोटियां भी निकल आती हैं और आराम भी मिलता है. आखिर आदमी आराम के लिए ही तो कमाता है. जब जान खपाकर भी आराम न मिला, तो जिन्दगी ही गारत हो गयी. मैं तो कहता हूं, तुम्हारी कमाई बढ़ जायेगी भैया! जितनी देर में आलू और मटर उबालते हो, उतनी देर में दो-चार प्याले चाय बेच लोगे. अब चाय बारहों मास चलती है. रात को लेटोगे, तो घरवाली पांव दबायेगी. सारा थकान मिट जायेगी. यह बात गोबर के मन में बैठ गयी. जी उचाट हो गया. अब तो वह झुनिया को लाकर ही रहेगा. आलू चूल्हे पर चढ़े रह गये, और उसने घर जाने की तैयारी कर दी, मगर याद आया कि होली आ रही है, इसलिए होली का सामान भी लेता चले. कृपण लोगों में उत्सवों पर दिल खोलकर खर्च करने की जो प्रवृति होती है, वह उसमें भी सजग हो गयी. आखिर इसी दिन के लिए तो कौड़ी-कौड़ी जोड़ रहा था. वह मां, बहिनों और झुनिया के लिए एक-एक जोड़ी साड़ी ले जायगा.होरी के लिए एक धोती और एक चादर. सोना के लिए तेल की शीशी ले जायेगा, और एक जोड़ा चप्पल. रूपा के लिए जापानी चूड़ियां और झुनिया के लिए एक पिटारी, जिसमें तेल, सिन्दूर और आईना होगा. बच्चे के लिए टोप और फ्राक, जो बाजार में बना-बनाया मिलता है. उसने रुपये निकाले और बाजार चला. दोपहर तक सारी चीजें आ गयीं. बिस्तर भी बंध गया, मुहल्लेवालों को खबर हो गयी, गोबर घर जा रहा हे.कई मर्द औरत उसे विदा करने आये. गोबर ने उन्हे अपना घर सौंपते हुए कहा-तुम्ही लोगों पर छोड़े जाता हूं भगवान ने चाहा तो होली के दूसरे दिन लौटूंगा. एक युवती ने मुसकराकर कहा-मेहरिया को बिना लिये न आना, नहीं घर में न घुसने पाओगे. दूसरी प्रोढ़ा ने शिक्षा दी- हां, और क्या, बहुत दिनों तक चूल्हा फूंक चुके. ठिकाने से रोटी तो मिलेगी. गोबर ने सब को राम-राम किया-हिन्दू भी थे, मुसलमान भी थे, सभी से मित्र भाव था, सब एक-दूसरे के दुःख-दर्द के साथी. रोजा रखनेवाले रोजा रखते थे, एकादशी रखनेवाले एकादशी.कभी-कभी विनोद भाव से एक-दूसरे पर छींटे भी उड़ा लेते थे. गोबर अलादीन की नमाज को उठा-बैठी कहता,अलादीन पीपल के नीचे स्थापित सैंकड़ों छोटे बड़े शिवलिंगों को बटखरे बताता, लेकिन साम्प्रदायिक द्वेष का नाम