राग गौरी
[136]
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सखा कहत हैं स्याम खिसाने ।
आपुहि-आपु बलकि भए ढाढ़े, अब तुम कहा रिसाने ?
बीचहिं बोलि उठे हलधर तब याके माइ न बाप ।
हारि-जीत कछु नैकू न समझत, लरिकनि लावत पाप ॥
आपुन हारि सखनि सौं झगरत, यह कहि दियौ पठाइ ।
सूर स्याम उठि चले रोइ कै, जननी पूछति धाइ ॥
भावार्थ / अर्थ :– सखा कहने लगे -‘श्याम तो झगड़ालू हैं । अपने -आप ही तो जोशमें आकर दौड़ने खड़े हो गये; फिर अब तुम क्रोध क्यों कर रहे हो?'(इस बातके) बीचमें ही बलरामजी बोल पड़े – ‘इसके न तो मैया है और न पिता ही । यह हार-जीतको तनिक भी समझता नहीं, (व्यर्थ) बालकों को दोष देता है । स्वयं हारकर सखाओंसे झगड़ा करता है ।’यह कहकर (‘घर जाओ!’ यों कहकर) (उन्होंने कन्हैयाको) घर भेज दिया । सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दर रोते हुए उठकर चल पड़े, इससे माता दौड़कर (रोनेका कारण) पूछने लगीं ।
[137]
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मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ ।
मोसौ कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ ?
कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात ।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरौ तात ॥
गोरे नंद जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात ।
चुटुकी दै-दै ग्वाल नवावत, हँसत, सबै मुसुकात ॥
तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहि कबहुँ न खीझै ।
मोहन-मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै ॥
सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत ।
सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत ॥
भावार्थ / अर्थ :– (श्यामसुन्दर कहते हैं-) ‘मैया ! दाउ दादाने मुझे बहुत चिढ़ाया है । मुझसे कहते हैं-‘तू मोल लिया हुआ है, यशोदा मैयाने भला, तुझे कब उत्पन्न किया ।’ क्या करूँ, इसी क्रोध के मारे मैं खेलने नहीं जाता । वे बार-बार कहते हैं – ‘तेरी माता कौन है ? तेरे पिता कौन हैं ? नन्दबाबा तो गोरे हैं, यशोदा मैया भी गोरी हैं, तू साँवले अंगवाला कैसे है ?’ चुटकी देकर (फुसलाकर) ग्वाल-बाल मुझे नचाते हैं, फिर सब हँसते और मुसकराते हैं । तूने तो मुझे ही मारना सीखा है, दाऊ दादाको कभी डाँटती भी नहीं ।’ सूरदासजी कहते हैं – मोहनके मुखसे क्रोधभरी बातें बार-बार सुनकर यशोदाजी (मन-ही-मन) प्रसन्न हो रही हैं । (वे कहती हैं) ‘कन्हाई’! सुनो, बलराम तो चुगलखोर है, वह जन्मसे ही धूर्त है, श्यामसुन्दर मुझे गोधन (गायों) की शपथ, मैं तुम्हारी माता हूँ और तुम मेरे पुत्र हो ।’