59. राग धनाश्री – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग धनाश्री

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 जब मोहन कर गही मथानी ।

परसत कर दधि-माट, नेति, चित उदधि, सैल, बासुकि भय मानी ॥

कबहुँक तीनि पैग भुव मापत, कबहुँक देहरि उलँघि न जानी !

कबहुँक सुर-मुनि ध्यान न पावत, कबहुँ खिलावति नंद की रानी !

कबहुँक अमर-खीर नहिं भावत, कबहुँक दधि-माखन रुचि मानी ।

सूरदास प्रभु की यह लीला, परति न महिमा सेष बखानी ॥

भावार्थ / अर्थ :– मोहन ने जब हाथ से मथानी पकड़ी, तब उनके दहीके मटके और नेती (दही मथनेकी रस्सी) में हाथ लगाते ही क्षीरसागर, मन्दराचल तथा वासुकिनाग अपने मनमें डरने लगे (कहीं फिर समुद्र-मन्थन न हो)। कभी तो ये (विराट््रूपसे)तीन पैंडमें पूरी पृथ्वी माप लेते हैं और कभी देहली पार करना भी इन्हें नहीं आता, कभी तो देवता और मुनिगण इन्हें ध्यानमें भी नहीं पाते और कभी श्रीनन्दरानी यशोदाजी (गोदमें) खेलाती हैं, कभी देवताओं द्वारा अर्पित (यज्ञीय) खीर भी इन्हे रुचिकर नहीं होती और कभी दही और मक्खनको बहुत रुचिकर मानते हैं । सूरदास के स्वामीकी यह लीला है, उनकी महिमाका वर्णन शेषजी भी नहीं कर पाते हैं ।

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