4. श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

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गोकुल प्रगट भए हरि आइ ।

अमर-उधारन असुर-संहारन, अंतरजामी त्रिभुवन राइ ॥

माथैं धरि बसुदेव जु ल्याए, नंद-महर-घर गए पहुँचाइ ।

जागी महरि, पुत्र-मुख देख्यौ, पुलकि अंग उर मैं न समाइ ॥

गदगद कंठ, बोलि नहिं आवै, हरषवंत ह्वै नंद बुलाइ ।

आवहु कंत,देव परसन भए, पुत्र भयौ, मुख देखौ धाइ ॥

दौरि नंद गए, सुत-मुख देख्यौ, सो सुख मापै बरनि न जाइ ।

सूरदास पहिलैं ही माँग्यौ, दूध पियावन जसुमति माइ ॥

भावार्थ / अर्थ :– देवताओं का उद्धार करने के लिए और असुरों का संहार करने के लिये ये अन्तर्यामी त्रिभुवननाथ श्रीहरि गोकुल में आकर प्रकट हुए हैं । श्रीवसुदेवजी इन्हें मस्तक पर रखकर ले आये और व्रजराज श्रीनन्द जी के घर पहुँचा गये । माता यशोदाजी ने जाग्रत होने पर जब पुत्र का मुख देखा, तब उनका अंग-अंग पुलकित हो गया, हृदय में आनंद समाता नहीं था, कंठ गद्गद हो उठा, बोलातक नहीं जाता था, अत्यन्त हर्षित होकर उन्होंने श्रीनन्दजी को बुलवाया कि स्वामी! पधारो । देवता प्रसन्न हो गये हैं, आपके पुत्र हुआ है, शीघ्र आकर उसका मुख देखो । श्रीनन्दरायजी दौड़कर पहुँचे, पुत्र का मुख देखकर उन्हें जो आनन्द हुआ, वह मुझसे वर्णन नहीं किया जाता है । सूरदासजी कहते हैं कि माता यशोदा ! मैंने पहले ही (धायके रूप में) दूध पिलाने की न्यौछावर माँगी है ।

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