44. राग सूहौ बिलावल – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग सूहौ बिलावल

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चलन चहत पाइनि गोपाल ।

लए लाइ अँगुरी नंदरानी, सुंदर स्याम तमाल ॥

डगमगात गिरि परत पानि पर, भुज भ्राजत नँदलाल ।

जनु सिर पर ससि जानि अधोमुख, धुकत नलिनि नमि नाल ॥

धूरि-धौत तन, अंजन नैननि, चलत लटपटी चाल ।

चरन रनित नूपुर-ध्वनि, मानौ बिहरत बाल मराल ॥

लट लटकनि सिर चारु चखौड़ा, सुठि सोभा सिसु भाल ।

सूरदास ऐसौ सुख निरखत, जग जीजै बहु काल ॥

भावार्थ / अर्थ :– गोपाल पैरोंसे चलना चाहते हैं । श्रीनन्दरानीने उन तमालके समान श्याम सुन्दरको अपनी अँगुलियों का सहारा पकड़ा दिया है । नन्दनन्दन लड़खड़ाकर हाथोंके बल गिर पड़ते हैं, उस समय उनकी भुजाएँ ऐसी शोभा देती हैं मानो अपने मस्तकपर चन्द्रमाको समझकर दो कमल अपनी नाल लटकाकर नीचे मुख किये झुक गये हैं, चरणमें ध्वनि करते नूपुर इस प्रकार बज रहे हैं मानो हंसशावक क्रीड़ा कर रहे हों । मस्तक पर अलकें लटक रही हैं, बड़ा सुन्दर डिठौना (काजलका टीका) मनोहर भालपर लगा है, यह शिशु-शोभा अत्यन्त मनोहर है । सूरदासजी कहते हैं कि ऐसे सुखरूपका दर्शन करते हुए तो संसार में बहुत समयतक जीवित रहना चाहिये । (इसके आगे अन्य सभी लोकोंके सुख तुच्छ हैं ।)

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