226. राग गौरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग गौरी

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वै मुरली की टेर सुनावत ।

बृंदाबन सब बासर बसि निसि-आगम जानि चले ब्रज आवत ॥

सुबल, सुदामा, श्रीदामा सँग, सखा मध्य मोहन छबि पावत ।

सुरभी-गन सब लै आगैं करि, कोउ टेरत कोउ बेनु बजावत ॥

केकी-पच्छ-मुकुट सिर भ्राजत, गौरी राग मिलै सुर गावत ।

सूर स्याम के ललित बदन पर, गोरज-छबि कछु चंद छपावत ॥

पूरे दिनभर वृन्दावनमें रहकर, रात्रि आनेवाली है–यह समझकर वह (श्याम) ध्वनि सुनाता हुआ व्रज चला आ रहा है । सुबल, सुदामा, श्रीदामा आदि सखाओंके बीचमें मोहन शोभित हो रहा है । गायों के समूहको सबोंने हाँककर आगे कर लिया है; कोई पुकार रहा है और कोई वंशी बजा रहा है । (श्यामके) मस्तकपर मोरपंखका मुकुट शोभा दे रहा है और वह गौरी रागमें (सखाओंसे) स्वर मिलाकर गा रहा है । सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दरके मनोहर मुखपर गायोंके पदोंसे उड़ी धूलि ऐसी लगती है जैसे चन्द्रमा कुछ-कुछ (बादलोंमे) छिपा है ।

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हरि आवत गाइनि के पाछे ।

मोर-मुकुट मकराकृति कुंडल, नैन बिसाल कमल तैं आछे ॥

मुरली अधर धरन सीखत हैं, बनमाला पीतांबर काछे ।

ग्वाल-बाल सब बरन-बरन के, कोटि मदन की छबि किए पाछे ॥

पहुँचे आइ स्याम ब्रज पुर मैं, घरहि चले मोहन-बल आछे ।

सूरदास-प्रभु दोउ जननी मिलि लेति बलाइ बोलि मुख बाछे ॥

श्रीकृष्णचन्द्र गायोंके पीछे-पीछे आ रहे हैं ।

मयूरपिच्छका मुकुट है, मकरके आकार वाले कुण्डल हैं, बड़े-बड़े नेत्र कमलसे भी अधिक सुन्दर हैं, अभी ओष्ठों पर वंशी रखना सीख ही रहे हैं, वनमाला पहिने हैं तथा पीताम्बरकी कछनी बाँधे हैं । सब गोपबालक अनेक रंगोंके हैं, वे करोड़ों कामदेवोंकी शोभा को भी पीछे किये (उससे भी अधिक सुन्दर) हैं । श्यामसुन्दर व्रजपुरीमें आ पहुँचे , श्रीबलराम और मोहन भली प्रकार अपने घर चले । सूरदासके स्वामीसे दोनों माताएँ (यशोदाजी और रोहिणीजी) मिलीं और मुखसे ‘मेरे लाल!’ कहती हुई बलैया लेने लगीं ।

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आजु हरि धेनु चराए आवत ।

मोर-मुकुट बनमाल बिराजत, पीतांबर फहरावत ॥

जिहिं-जिहिं भाँति ग्वाल सब बोलत, सुनि स्रवननि मन राखत ।

आपुनि टेर लेत ताही सुर, हरषत पुनि पुनि भाषत ॥

देखत नंद-जसोदा-रोहिनि, अरु देखत ब्रज-लोग ।

सूर स्याम गाइनि सँग आए, मैया लीन्हे रोग ॥

भावार्थ / अर्थ :– आज श्याम गायें चराकर आ रहे हैं । मयूरपिच्छका मुकुट और वनमाला शोभा दे रही है, पीताम्बरका पटुका उड़ रहा है । सब गोपसखा जिस-जिस प्रकारसे बोलते हैं, उसी प्रकार से (उसी भावसे) उनकी बातें सुनते हैं तथा उनका मन रखते हैं, । स्वयं भी सखाओंके स्वर-में-स्वर मिलाकर) उसी स्वरमें टेर लगाते हैं और हर्षित होकर बार-बार उसे दुहराते हैं । श्रीनन्दजी, यशोदा मैया और रोहिणी माता देख रही हैं , व्रजके सब लोग (उनका आना) देख रहे हैं । सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दर गायोंके साथ आ गये । मैयाने–‘मेरे लालकी सब रोग-व्याधि मुझे लगे’ यह कहकर उनकी बलैया ली ।