198. राग कान्हरौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग कान्हरौ

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मोहि कहतिं जुबती सब चोर ।

खेलत कहूँ रहौं मैं बाहिर, चितै रहतिं सब मेरी ओर ॥

बोलि लेतिं भीतर घर अपनैं, मुख चूमतिं, भरि लेतिं अँकोर ।

माखन हेरि देतिं अपनैं कर, कछु कहि बिधि सौं करति निहोर ॥

जहाँ मोहि देखतिं, तहँ टेरतिं , मैं नहिं जात दुहाई तोर ।

सूर स्याम हँसि कंठ लगायौ, वै तरुनी कहँ बालक मोर ॥

भावार्थ / अर्थ :– (श्यामसुन्दर मैयासे कहते हैं-) ‘व्रजकी युवतियाँ मुझे चोर कहती हैं । मैं बाहर कहीं भी खेलता रहूँ, सब मेरी ओर ही देखा करती हैं । मुझे घरके भीतर बुला लेती हैं और वहाँ मेरा मुख चूमती हैं, मुझे भुजाओं में भरकर हृदयसे लगा लेती हैं अपने हाथ से भलीप्रकार देखकर मुझे मक्खन देती हैं और कुछ कहकर विधातासे निहोरा करती हैं । जहाँ मुझे देखती हैं, वही पुकारती हैं; किंतु मैया ! तेरी दुहाई, मैं जाता नहीं।’ सूरदासजी कहते हैं – (यह सुनकर) माताने हँसकर उन्हें गले लगा लिया (और बोलीं) ‘कहाँ तो मेरा यह भोला बालक और कहाँ वे सब तरुणियाँ ।’