197. राग सारंग – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग सारंग

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अब घर काहू कैं जनि जाहु ।

तुम्हरैं आजु कमी काहे की , कत, तुम अनतहिं खाहु ॥

बरै जेंवरी जिहिं तुम बाँधे, परैं हाथ भहराइ ।

नंद मोहि अतिहीं त्रासत हैं, बाँधे कुँवर कन्हाइ ॥

रोग जाऊ मेरे हलधरके, छोरत हौ तब स्याम ।

सूरदास-प्रभु खात फिरौ जनि, माखन-दधि तुव धाम ॥

भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं–(मैया पश्चाताप करती कह रही हैं -)’लाल! अब किसीके घर मत जाया करो । तुम्हारे यहाँ इस समय किस बातका अभाव है, दूसरेके यहाँ जाकर तुम क्यों खाते हो ? जिस रस्सीसे तुम्हें बाँधा था, वह जल जाय; (तुम्हें बाँधने वाले मेरे ) ये हाथ टूटकर गिर पड़ें, व्रजराज मुझे बहुत ही डाँट रहे हैं कि ‘तूने मेरे कुँवर कन्हाईको बाँध दिया ! मेरे बलरामके सब रोग दोष नष्ट हो जायँ, वह तभी श्यामसुन्दर को छोड़ रहा था । मोहन ! तुम्हारे घरमें ही दही-मक्खन बहुत है, (दूसरों के घर) खाते मत घूमो ।’

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ब्रज-जुबती स्यामहि उर लावतिं ।

बारंबार निरखि कोमल तनु, कर जोरतिं, बिधि कौं जु मनावतिं ॥

कैसैं बचे अगम तरु कैं तर, मुख चूमतिं, यह कहि पछितावतिं ।

उरहन लै आवतिं जिहिं कारन, सो सुख फल पूरन करि पावतिं ॥

सुनौ महरि, इन कौं तुम बाँधति, भुज गहि बंधन-चिह्न दिखावतिं ।

सूरदास प्रभु अति रति-नागर, गोपी हरषि हृदय लपटावतिं ॥

भावार्थ / अर्थ :– व्रजकी गोपियाँ श्यामसुन्दरको हृदयस लगा रही हैं । बार-बार उनके सुकुमार शरीरको देखकर हाथ जोड़कर दैवको मनाती हैं (कि यह सकुशल रहे)। ‘बड़े विकट वृक्षोंके नीचे पड़कर ये कैसे बचे ? ‘ यह सोचकर मुख चूमती हैं तथा यह कहते हुए पश्चाताप करती हैं कि-‘जिसके लिये हम उलाहना लेकर आती थीं, उस सुखका फल पूर्णरूपमें हम पा रही हैं व्रजरानी ! सुनो, तुम इन्हें (इतने सुकुमारको) बाँधती हो ?’ (यह कहकर) हाथ पकड़ कर बन्धनके चिह्न (रस्सीके निशान) दिखलाती हैं । सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी क्रीड़ा करनेमें अत्यन्त चतुर हैं (उन्होंने अपनी इस क्रीड़ासे सबको मोहित कर लिया है ) गोपियाँ हर्षित होकर उन्हें हृदयसे लिपटा रही हैं ।