186. राग केदारौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग केदारौ

[254]

………..$

काहे कौं कलह नाथ्यौ, दारुन दाँवरि बाँध्यौ, कठिन लकुट लै तैं, त्रास्यौ मेरैं भेया ।

नाहीं कसकत मन, निरखि कोमल तन, तनिक-से दधि काज, भली री तू मैया ॥

हौं तौ न भयौ री घर, देखत्यौ तेरी यौं अर, फोरतौ बासन सब, जानति बलैया ।

सूरदासहित हरि, लोचन आए हैं भरि, बलहू कौं बल जाकौ सोई री कन्हैया ॥

भावार्थ / अर्थ :– (श्रीबलरामजी कहते हैं) ‘मैया ! तूने यह झगड़ा क्यों खड़ा किया । मेरे भाईको तुमने दुःखदायिनी रस्सीसे बाँध दिया है और कठोर छड़ी लेकर भयभीत कर दिया है । तू अच्छी मैया है, थोड़े-से दहीके लिये यह सब करते हुए इसके कोमल शरीरको देखकर तेरे मनमें पीड़ा नहीं होती ? अरी मैया ! मैं घर नहीं था, होता तो तेरा यह हठ देख लेता, तेरे सब बर्तन फोड़ देता, तब तू इस बलरामको जानती ।’ सूरदासजी कहते हैं कि मोहनके प्रेमसे दाऊके नेत्र भर आये हैं, बलरामजीका भी जो बल है, वही तो यह कन्हाई (दाऊका सर्वस्व) है ।