178. राग गौरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग गौरी

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वारौं हौं वे कर जिन हरि कौ बदन छुयौ वारौं रसना सो जिहिं बोल्यौ है तुकारि ।

वारौं ऐसी रिस जो करति सिसु बारे पर ऐसौ सुत कौन पायौ मोहन मुरारि ॥

ऐसी निरमोही माई महरि जसोदा भई बाँध्यौ है गोपाल लाल बाहँनि पसारि ।

कुलिसहु तैं कठिन छतिया चितै री तेरी अजहूँ द्रवति जो न देखति दुखारि ॥

कौन जानै कौन पुन्य प्रगटे हैं तेरैं आनि जाकौं दरसन काज जपै मुख-चारि ।

केतिक गोरस-हानि जाकौ सूर तोरै कानि डारौं तन स्याम रोम-रोम पर वारि ॥

भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं-(कोई वृद्धा गोपी कह रही है-)’उन हाथोंको न्योछावर करदूँ, जिन्होंने श्यामके शरीरका स्पर्श किया है (उसे मारा है)! उस जीभको न्योछावर जो ‘तू’ कहकर (मोहनका अपमान करके) बोली है! ऐसे क्रोधको न्योछावर कर दूँ, जो इतने छोटे शिशुपर किया जाता है ! भला, ऐसा मोहन मुरारिके समान पुत्र पाया किसने है ? सखी ! व्रजरानी यशोदा ऐसी निर्मम हो गयी कि गोपाललालकी भुजाएँ फैलाकर उसे बाँध दिया है ! अरी देख तो, तेरा हृदय तो वज्रसे भी कठोर है, जो मोहनको दुःखी देखकर अब भी नहीं पिघलता । जिसका दर्शन पानेके लिये चतुर्मुख ब्रह्मा सदा जप (स्तुति करते रहते हैं, पता नहीं किस पुण्यसे तेरे यहाँ आकर वे प्रकट हुए हैं । अरी गोरस की कितनी हानि हो गयी, जिसके लिये संकोच तोड़ रही है ! श्यामसुन्दरके तो रोम-रोमपर मैं शरीर न्योछावर करदूँ (दूध दही की तो बात ही क्या है )’