147. राग गौरी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग गौरी

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गए स्याम ग्वालिनि -घर सूनैं ।

माखन खाइ, डारि सब गोरस, बासन फोरि किए सब चूनै ॥

बड़ौ माट इक बहुत दिननि कौ, ताहि कर््यौ दस टूक ।

सोवत लरिकनि छिरकि मही सौं, हँसत चलै दै कूक ॥

आइ गई ग्वालिनि तिहिं औसर, निकसत हरि धरि पाए ।

देखे घर-बासन सब फूटे, दूध-दही ढरकाए ॥

दोउ भुज धरि गाढ़ैं करि लीन्हें, गई महरि कै आगैं ।

सूरदास अब बसै कौन ह्याँ, पति रहिहै ब्रज त्यागैं ॥

भावार्थ / अर्थ :– (किसी) गोपीके सूने घरमें गये । वहाँ मक्खन खाकर शेष सब गोरस (दूध दहीं) गिरा दिया और बर्तनोंको फोड़कर चूर-चूर कर दिया । बहुत दिनोंका पुराना एक बड़ा मटका था, उसके भी दस टुकड़े कर दिये । सोते हुए बालकोंपर मट्ठा छिड़ककर हँसते हुए किलकारी मारकर भाग चले । उसी समय वह गोपी आ गयी और घरसे निकलते हुए श्याम उसकी पकड़में आ गये । उसने देख लिया कि घरके सब बर्तन फूट गये और दूध-दही ढुलकाया हुआ है । दोनों हाथ उसने दृढ़ता से पकड़ लिया और व्रजरानीके सामने (लेकर) गयी । सूरदासजी कहते हैं–(वहाँ जाकर ‘अब हमलोग किसके यहाँ जाकर बसें? हमारा सम्मान व्रज छोड़ देनेपर ही बचा रह सकता है ।’ राग-बिलावल

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ऐसो हाल मेरैं घर कीन्हौ, हौं ल्याई तुम पास पकरि कै ।

फौरि भाँड़ दधि माखन खायौ, उबर््यौ सो डार््यौ रिस करि कै ॥

लरिका छिरकि मही सौं देखै, उपज्यौ पूत सपूत महरि कै ।

बड़ौ माट घर धर््यौ जुगनि कौ, टूक-टूक कियौ सखनि पकरि कै ॥

पारि सपाट चले तब पाए, हौं ल्याई तुमहीं पै धरि कै ।

सूरदास प्रभु कौं यौं राखौ, ज्यौं राखिये जग मत्त जकरि कै ॥

भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं –(गोपी बोली) ‘मैं इसे तुम्हारे पास पकड़कर ले आयी हूँ- इसने मेरे घर ऐसी दशा करदी है – (कि क्या कहूँ) बर्तन फोड़कर दही मक्खन खा लिया; जो बचा, उसे क्रोध करके गिरा दिया ; बालकोंपर मट्ठा छिड़ककर उनकी ओर (हँसता हुआ) देखता है । व्रजरानी के ऐसा सुपूत (योग्य) पुत्र उत्पन्न हुआ है । मेरे घरमें एक युगों का पुराना बड़ा मटका रखा था, सखाओं के साथ उसे पकड़कर (उठकर) टुकड़े-टुकड़े कर दिया; सब कुछ बराबर (चौपट) करके जब-सब के सब भाग चले, तब मुझे मिले और मैं पकड़कर (इन्हें) तुम्हारे ही पास ले आयी हूँ । अब इसे इस प्रकार बाँधकर रखो, जैसे मतवाले हाथीको जकड़कर रखा जाता है ।’ राग-कान्हरौ

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करत कान्ह ब्रज-घरनि अचगरी ।

खीजति महरि कान्ह सौं, पुनि-पुनि उरहन लै आवति हैं सगरी ॥

बड़े बाप के पूत कहावत, हम वै बास बसत इक बगरी ।

नंदहु तैं ये बड़े कहैहैं, फेरि बसैहैं यह ब्रज-नगरी ॥

जननी कैं खीझत हरि रोए, झूठहि मोहि लगावति धगरी ।

सूर स्याम-मुख पोंछि जसोदा, कहति सबै जुवती हैं लँगरी ॥

भावार्थ / अर्थ :– कन्हाई व्रजके घरोंमें ऊधम करते हैं, इससे व्रजरानी कृष्णचन्द्र पर खीझ रही है – ‘ये सभी बार-बार उलाहना लेकर आती हैं, तुम बड़े (सम्मानित) पिताके पुत्र कहलाते हो, हम और वे गोपियाँ एक स्थानमें ही निवास करती हैं (उनसे रोज-रोज कहाँतक झगड़ा किया जा सकता है)। इधर ये (मेरे सुपुत्र) ऐसे हो गये हैं मानो व्रजराज नन्दजी से भी बड़े कहलायेंगे और ( सबको उजाड़कर) व्रजकी नगरी ये फिर से बसायेंगे ।’ माता के डाँटनेपर श्यामसुन्दर रो पड़े (और बोले-) ‘ये कुलक्षणियाँ मुझे झूठा ही दोष लगाती हैं ।’ सूरदासजी कहते हैं कि यशोदाजीने श्यामका मुख पोंछा (और पुचकारकर) कहने लगीं – (लाल) रो मत ।) ‘ये सब युवती गोपियाँ हैं ही झगड़ालू ।’