107. राग सूहौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग सूहौ

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माखन बाल गोपालहि भावै ।

भूखे छिन न रहत मन मोहन, ताहि बदौं जो गहरु लगावै ॥

आनि मथानी दह्यौ बिलोवौं, जो लगि लालन उठन न पावै ।

जागत ही उठि रारि करत है, नहिं मानै जौ इंद्र मनावै ॥

हौं यह जानति बानि स्याम की, अँखियाँ मीचे बदन चलावै ।

नंद-सुवन की लगौं बलैया, यह जूठनि कछु सूरज पावै ॥

भावार्थ / अर्थ :– (माता कहती हैं) -‘मेरे बालगोपाल को मक्खन रुचिकर है । मन मोहन एक क्षण भी भूखे नहीं रह सकता; इसमें जो देर लगा सके, उससे मैं होड़ बद सकती हूँ । मथानी लाकर मैं तबतक दही मथ लूँ जब तक कि मेरा लाल जाग न जाय; (क्योंकि) उठते ही वह (मक्खनके लिये) मचल जाता है और फिर इन्द्र भी आकर मनावें तो मान नहीं सकता । मैं श्यामका यह स्वभाव जानती हूँ कि वह (आधी नींदमें भी उठकर मक्खन लेकर) नेत्र बंद किये हुए मुँह चलाता रहता है ।’ सूरदासजी कहते हैं कि मैं श्रीनन्दनन्दनके ऊपर बलिहारी जाता हूँ, उनका यह उच्छिष्ट कुछ मुझे भी मिल जाय ।

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