103. राग सारंग – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग सारंग

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नंद बुलावत हैं गोपाल ।

आवहु बेगि बलैया लेउँ हौं, सुंदर नैन बिसाल ॥

परस्यौ थार धर््यौ मग जोवत, बोलति बचन रसाल ।

भात सिरात तात दुख पावत, बेगि चलौ मेरे लाल ॥

हौं वारी नान्हें पाइनि की, दौरि दिखावहु चाल ।

छाँड़ि देहु तुम लाल अटपटि, यह गति मंद मराल ॥

सो राजा जो अगमन पहुँचै, सूर सु भवन उताल ।

जो जैहैं बल देव पहिले हीं, तौ हँसहैं सब ग्वाल ॥

भावार्थ / अर्थ :– माता बड़ी रसमयी (प्रेमभरी) वाणीसे पुकारती है ‘सुन्दर बड़े बड़े लोचनोवाले गोपाल ! शीघ्र आओ, मैं तुम्हारी बलैया लूँ । तुम्हें नन्दबाबा बुला रहे है, थाल परोसा हुआ है । (बाबा भोजनके लिये) तुम्हारा रास्ता देख रहे हैं; भात ठंडा हुआ जाता है, (इससे बाबा) खिन्न हो रहे हैं, मेरे लाल ! झटपट चलो । मैं तुम्हारे इन नन्हें चरणों पर बलिहारी जाती हूँ, दौड़कर अपनी चाल तो दिखलाओ । यह हंसके समान अटपटी मन्दगति (इस समय छोड़ दो ।’सुरदासजी कहते हैं–(मैयाने कहा,)जो शीघ्रता पूर्वक पहले घर पहुँच जाय, वही राजा होगा । यदि बलराम पहले पहुँच जायँगेतो सब गोपबालक तुम्हारी हँसी करेंगे ।’

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जेंवत कान्ह नंद इकठौरे ।

कछुक खात लपटात दोउ कर, बालकेलि अति भोरे ॥

बरा-कौर मेलत मुख भीतर, मिरिच दसन टकटौरे ।

तीछन लगी नैन भरि आए, रोवत बाहर दौरे ॥

फूँकति बदन रोहिनी ठाढ़ी, लिए लगाइ अँकोरे।

सूर स्याम कौं मधुर कौर दै कीन्हें तात निहोरे ॥

भावार्थ / अर्थ :– श्रीनन्दजी और कन्हाई एक स्थानमें ( एक थालमें) भोजन कर रहे हैं । बालोचित क्रीड़ा के आवेशमें अत्यन्त भोले बने हुए श्रीकृष्ण कुछ खाते हैं और कुछ दोनों हाथों में लिपटा लेते हैं । कभी मुखमें बड़ेका ग्रास डालते हैं । (इस प्रकार भोजन करते हुए) दाँतों से मिर्चका स्पर्श हो जाने पर वह तीक्ण लगी । नेत्रों में जल भर आया, रोते हुए बाहर दौड़ चले । माता रोहिणी ने उठाकर उन्हें गोदमें ले लिया और खड़ी-खड़ी उनके मुख को फूँकने लगीं । सूरदासजी कहते हैं कि बाबाने श्यामसुन्दर को मीठा ग्रास देकर उनको प्रसन्न किया ।