विविध
– संत कबीर
पाइ पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि ।
जोड़ी बिछटी हंस की, पड्या बगां के साथि ॥1॥
भावार्थ / अर्थ – अनमोल पदार्थ जो मिल गया था, उसे तो छोड़ दिया और कंकड़ हाथ में ले लिया । हंसों के साथ से बिछुड़ गया और बगुलों के साथ हो लिया । [तात्पर्य यह कि आखिरी मंजिल तक पहुँचते-पहुँचते साधक यात्रियों का साथ छूट जाने और सिद्धियों के फेर में पड़ जाने से यह जीव फिर दुनियांदारी की तरफ लौट आया ।]
हरि हीरा, जन जौहरी, ले ले माँडी हाटि ।
जब र मिलैगा पारिषी, तब हरि हीरां की साटि ॥2॥
भावार्थ / अर्थ – हरि ही हीरा है, और जौहरी है हरि का भक्त हीरे को हाट-बाजार में बेच देने के लिए उसने दूकान लगा रखी है, वही और तभी इसे कोई खरीद सकेगा, जबकि सच्चे पारखी अर्थात् सद्गुरु से भेंट हो जायगी
बारी बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत ।
तेरी बारी रे जिया , नेड़ी आवै निंत ॥3॥
भावार्थ / अर्थ – अपने प्यारे संगी-साथी और मित्र बारी-बारी से विदा हो रहे हैं, अब, मेरे जीव, तेरी भी बारी रोज-रोज नजदीक आती जा रही है ।
जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिलाइ ।
जो चिणियां सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ ॥4॥
भावार्थ / अर्थ – जिसका उदय हुआ, उसका अस्त होगा ही; जो फूल खिल उठा, वह कुम्हलायगा ही ; जो मकान चिना गया, वह कभी-न-कभी तो गिरेगा ही; और जो भी दुनियाँ में आया, उसे एक न एक दिन कूच करना ही है ।
गोव्यंद के गुण बहुत हैं, लिखे जु हिरदै मांहिं ।
डरता पाणी ना पीऊँ , मति वै धोये जाहिं ॥5॥
भावार्थ / अर्थ – कितने सारे गोविन्द के गुण मेरे हृदय में लिखे हुए हैं, कोई गिनती नहीं उनकी । पानी मैं डरते-डरते पीता हूँ कि कहीं वे गुण धुल न जायं ।
निंदक नेड़ा राखिये, आंगणि कुटी बंधाइ ।
बिन साबण पाणी बिना, निरमल करै सुभाइ ॥6॥
भावार्थ / अर्थ – अपने निन्दक को अपने पास ही रखना चाहिए, आंगन में उसके लिए कुटिया भी बना देनी चाहिए ।
क्योंकि वह सहज ही बिना साबुन और बिना पानी के धो-धोकर निर्मल बना देता है ।
न्यंदक दूर न कीजिये, दीजै आदर मान ।
निरमल तन मन सब करै, बकि बकि आनहिं आन ॥7॥
भावार्थ / अर्थ – अपने निन्दक को कभी दूर न किया जाय, आँखों में ही उसे बसा लिया जाय । उसे मान-सम्मान दे दिया जाय। तन और मन को, क्योंकि वह निर्मल कर देता है । निन्दा कर-कर अवसर देता है हमें अपने आपको देखने-परखने का ।
`कबीर’ आप ठगाइए और न ठगिये कोइ ।
आप ठग्यां सुख ऊपजै, और ठग्यां दुख होइ ॥8॥
भावार्थ / अर्थ – कबीर कहते हैं — खुद तुम भले ही ठगाये जाओ, पर दूसरों को नहीं ठगना चाहिए । खुद के ठगे जाने से आनन्द होता है, जब कि दूसरों को ठगने से दुःख ।
`कबीर’ घास न नींदिए, जो पाऊँ तलि होइ ।
उड़ि पड़ै जब आँखि मैं, बरी दुहेली होइ ॥9॥
भावार्थ / अर्थ – कबीर कहते हैं -पैरों तले पड़ी हुई घास का भी अनादर नहीं करना चाहिए । एक छोटा-सा तिनका भी उसकी आँख में यदि पड़ गया, तो बड़ी मुश्किल हो जायगी ।
करता केरे बहुत गुण, औगुण कोई नाहिं ।
जो दिल कोजौं आपणौं, तौ सब औगुण मुझ माहिं ॥10॥
भावार्थ / अर्थ – सिरजनहार में गुण-ही-गुण हैं, अवगुण एकभी नहीं । अवगुण ही देखने हैं, तो हम अपने दिल को ही खोजें ।
खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ ।
कुसबद तौ हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ ॥11॥
भावार्थ / अर्थ – धरती को कितना ही खोदो-खादो, वह सब सहन कर लेती है । और नदी तीर के वृक्ष बाढ़ को सह लेते हैं । कटु वचन तो हरिजन ही सहते है, दूसरों से वे सहन नहीं हो सकते ।
सीतलता तब जाणियें ,समिता रहै समाइ ।
पष छाँड़ै निरपष रहै, सबद न देष्या जाइ ॥12॥
भावार्थ / अर्थ – हमारे अन्दर शीतलता का संचार हो गया है, यह समता आ जाने पर ही जाना जा सकता है । पक्ष-अपक्ष छोड़कर जबकि हम निष्पक्ष हो जायं । और कटुवचन जब अपना कुछ भी प्रभाव न डाल सकें ।
`कबीर’ सिरजनहार बिन, मेरा हितू न कोइ ।
गुण औगुण बिहड़ै नहीं, स्वारथ बंधी लोइ ॥13॥
भावार्थ / अर्थ – कबीर कहते हैं – मेरा और कोई हितू नहीं सिवा मेरे एक सिरजनहार के । मुझ में गुण हो या अवगुण, वह मेरा कभी त्याग नहीं करता । ऐसा तो दुनियादार ही करते हैं स्वार्थ में बँधे होने के कारण ।
साईं एता दीजिए, जामें कुटुंब समाइ ।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाइ ॥14॥
भावार्थ / अर्थ – ऐ मेरे मालिक ! तू मुझे इतना ही दे,कि जिससे एक हद के भीतर मेरे कुटुम्ब की जरूरतें पूरी हो जायं । मैं भी भूखा न रहूँ, और जब कोई भला आदमी द्वार पर आ जाय, तो वह भूखा ही वापस न चला जाय ।
नीर पियावत क्या फिरै, सायर घर-घर बारि ।
जो त्रिषावन्त होइगा, सो पीवेगा झखमारि ॥15॥
भावार्थ / अर्थ – क्या पानी पिलाता फिरता है घर-घर जाकर ? अन्तर्मुख होकर देखा तो घर-घर में, घट-घट में, सागर भरा लहरा रहा है । सचमुच जो प्यासा होगा, वह झख मारकर अपनी प्यास बुझा लेगा । [आत्मानन्द का सागर सभी के अन्दर भरा पड़ा है ।`तृषावंत’ से तात्पर्य है सच्चे तत्त्व-जिज्ञासु से ।]
हीरा तहाँ न खोलिये, जहँ खोटी है हाटि ।
कसकरि बाँधो गाठरी, उठि करि चालौ बाटि ॥16॥
भावार्थ / अर्थ – जहाँ खोटा बाजार लगा हो, ईमान-धरम की जहाँ पूछ न हो , वहाँ अपना हीरा खोलकर मत दिखाओ ।पोटली में कसकर उसे बन्द करलो और अपना रास्ता पकड़ो । [ हीरा से मतलब है आत्मज्ञान से।`खोटीहाट’ से मतलब है अनधिकारी लोगों से, जिनके अन्दर जिज्ञासा न हो ।]
हीरा परा बजार में, रहा छार लपिटाइ ।
ब तक मूरख चलि गये, पारखि लिया उठाइ ॥17॥
भावार्थ / अर्थ – हीरा योंही बाजार में पड़ा हुआ था – देखा और अनदेखा भी, धूल मिट्टी से लिपटा हुआ । जितने भी अपारखी वहाँ से गुजरे, वे यों ही चले गये । लेकिन जब सच्चा पारखी वहाँ पहुँचा तो उसने बड़े प्रेम से उसे उठाकर गंठिया लिया ।
सब काहू का लीजिए, सांचा सबद निहार ।
पच्छपात ना कीजिए, कहै `कबीर’ बिचार ॥18॥
भावार्थ / अर्थ – कबीर खूब विचारपूर्वक इस निर्णय पर पहुँचा है कि जहाँ भी, जिसके पास भी सच्ची बात मिले उसे गांठ में बाँध लिया जाय पक्ष और अपक्ष को छोड़कर ।
क्या मुख लै बिनती करौं, लाज आवत है मोहिं ।
तुम देखत औगुन करौं, कैसे भावों तोहिं ॥19॥
भावार्थ / अर्थ – सामने खड़ा हूँ तेरे, और चाहता हूँ कि विनती करूँ । पर करूँ तो क्या मुँह लेकर, शर्म आती है मुझे । तेरे सामने ही भूल-पर-भूल कर रहा हूँ और पाप कमा रहा हूँ । तब मैं कैसे, मेरे स्वामी, तुझे पसन्द आऊँगा ?
सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भौजल माहिं ।
आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥20॥
भावार्थ / अर्थ – मेरे साईं ! हम पर ध्यान दो, हमें भुला न दो ।भवसागर में हम डूब रहे हैं। तुमने यदि हाथ न पकड़ा तो बह जायंगे । अपने खुद के उबारे तो हम उबर नहीं सकेंगे ।