रहीम के दोहे (भाग 2)

1: ध्यान और वन्दना

जेहि ‘रहीम’ मन आपनो कीन्हो चारु चकोर।

निसि-वासर लाग्यो रहे, कृष्ण चन्द्र की ओर॥1॥

शब्दार्थ / अर्थ : जिस किसी ने अपने मन को सुन्दर चकोर बना लिया, वह नित्य निरन्तर, रात और दिन, श्रीकृष्णरूपी चन्द्र की ओर टकटकी लगाकर देखता रहता है। (सन्दर्भ-चन्द्र का उदय रात को होता है, पर यहाँ वासर अर्थात दिन भी आया है, अत: वासर का आशय है नित्य निरन्तर से।)

‘रहिमन’ कोऊ का करै, ज्वारी,चोर,लबार।

जो पत-राखनहार है, माखन-चाखनहार॥2॥

शब्दार्थ / अर्थ : जिसकी लाज रखनेवाले माखन के चाखनहार अर्थात रसास्वादन लेनेवाले स्वयं श्रीकृष्ण हैं,उसका कौन क्या बिगाड़ सकता है? न तो कोई जुआरी उसे हरा सकता है, न कोई चोर उसकी किसी वस्तु को चुरा सकता है और न कोई लफंगा उसके साथ असभ्यता का व्यवहार कर सकता है। (सन्दर्भ-जुआरी का आशय है यहां शकुनि से, जिसने युधिष्ठर को धूर्ततापूर्वक जुए में बुरी तरह हरा दिया था। ब्रह्मा द्वारा जब ग्वाल-बालों की गांए चुरा ली गयीं, तब श्रीकृष्ण ने उनकी रक्षा की थी। इसी प्रकार दुष्ट दु:शासन द्वारा साड़ी खींचने पर आर्त द्रौपदी की लाज श्रीकृष्ण ने बचाई थी।)

2: अनन्यता

‘रहिमन’ गली है सांकरी, दूजो नहिं ठहराहिं।

आपु अहै, तो हरि नहीं, हरि, तो आपुन नाहिं॥1॥

शब्दार्थ / अर्थ : जबकि गली सांकरी है, तो उसमें एक साथ दो जने कैसे जा सकते है? यदि तेरी खुदी ने सारी ही जगह घेर ली तो हरि के लिए वहां कहां ठौर है? और, हरि उस गली में यदि आ पैठे तो फिर साथ-साथ खुदी का गुजारा वहां कैसे होगा? मन ही वह प्रेम की गली है, जहां अहंकार और भगवान् एक साथ नहीं गुजर सकते, एक साथ नहीं रह सकते।

अमरबेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।

‘रहिमन’ ऐसे प्रभुहि तजि, खोजत फिरिए काहि॥2॥

शब्दार्थ / अर्थ : अमरबेलि में जड़ नहीं होती, बिलकुल निर्मूल होती है वह; परन्तु प्रभु उसे भी पालते-पोसते रहते हैं। ऐसे प्रतिपालक प्रभु को छोड़कर और किसे खोजा जाय?

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।

‘रहिमन’ मछरी नीर को तऊ न छाँड़ति छोह॥3॥

शब्दार्थ / अर्थ : धन्य है मीन की अनन्य भावना! सदा साथ रहने वाला जल मोह छोड़कर उससे विलग हो जाता है, फिर भी मछली अपने प्रिय का परित्याग नहीं करती उससे बिछुड़कर तड़प-तड़पकर अपने प्राण दे देती है।

धनि ‘रहीम’ गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय।

जियत कंज तजि अनत बसि, कहा भौर को भाय॥4॥

शब्दार्थ / अर्थ : धन्य है मछली की अनन्य प्रीति! प्रेमी से विलग होकर उसपर अपने प्राण न्यौछावर कर देती है। और, यह भ्रमर, जो अपने प्रियतम कमल को छोड़कर अन्यत्र उड़ जाता है!

प्रीतम छबि नैनन बसी, पर-छबि कहां समाय।

भरी सराय ‘रहीम’ लखि, पथिक आप फिर जाय॥5॥

शब्दार्थ / अर्थ : जिन आँखों में प्रियतम की सुन्दर छबि बस गयी, वहां किसी दूसरी छबि को कैसे ठौर मिल सकता है? भरी हुई सराय को देखकर पथिक स्वयं वहां से लौट जाता है। (मन-मन्दिर में जिसने भगवान को बसा लिया, वहां से मोहिनी माया, कहीं ठौर न पाकर, उल्टे पांव लौट जाती है।)

3:प्रेम

‘रहिमन’ पैड़ा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल।

बिलछत पांव पिपीलिको, लोग लदावत बैल॥1॥

शब्दार्थ / अर्थ : प्रेम की गली में कितनी ज्यादा फिसलन है! चींटी के भी पैर फिसल जाते हैं इस पर। और, हम लोगों को तो देखो, जो बैल लादकर चलने की सोचते है! (दुनिया भर का अहंकार सिर पर लाद कर कोई कैसे प्रेम के विकट मार्ग पर चल सकता है? वह तो फिसलेगा ही।)

‘रहिमन’ धागा प्रेम को, मत तोड़ो चटकाय।

टूटे से फिर ना मिले, मिले गांठ पड़ जाय॥2॥

शब्दार्थ / अर्थ : बड़ा ही नाजुक है प्रेम का यह धागा। झटका देकर इसे मत तोड़ो, भाई! टूट गया तो फिर जुड़ेगा नहीं, और जोड़ भी लिया तो गांठ पड़ जायगी। (प्रिय और प्रेमी के बीच दुराव आ जायगा।)

‘रहिमन’ प्रीति सराहिये, मिले होत रंग दून।

ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून॥3॥

शब्दार्थ / अर्थ : सराहना ऐसे ही प्रेम की की जाय जिसमें अन्तर न रह जाय। चूना और हल्दी मिलकर अपना-अपना रंग छोड़ देते है। (न दृष्टा रहता है और न दृश्य, दोनों एकाकार हो जाते हैं।)

कहा करौं वैकुण्ठ लै, कल्पबृच्छ की छांह।

‘रहिमन’ ढाक सुहावनो, जो गल पीतम-बाँह॥4॥

शब्दार्थ / अर्थ : वैकुण्ठ जाकर कल्पवृक्ष की छांहतले बैठने में रक्खा क्या है, यदि वहां प्रियतम पास न हो! उससे तो ढाक का पेड़ ही सुखदायक है, यदि उसकी छांह में प्रियतम के साथ गलबाँह देकर बैठने को मिले।

जे सुलगे ते बुझ गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।

‘रहिमन’ दाहे प्रेम के, बुझि-बुझिकैं सुलगाहिं॥5॥

शब्दार्थ / अर्थ : आग में पड़कर लकड़ी सुलग-सुलगकर बुझ जाती है, बुझकर वह फिर सुलगती नहीं। लेकिन प्रेम की आग में दग्ध हो जाने वाले प्रेमीजन बुझकर भी सुलगते रहते है। (ऐसे प्रेमी ही असल में ‘मरजीवा’ हैं।)

टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार।

‘रहिमन’ फिर-फिर पोइए, टूटे मुक्ताहार॥6॥

शब्दार्थ / अर्थ : अपना प्रिय एक बार तो क्या, सौ बार भी रूठ जाय, तो भी उसे मना लेना चाहिए। मोतियों के हार टूट जाने पर धागे में मोतियों को बार-बार पिरो लेते हैं न!

यह न ‘रहीम’ सराहिये, देन-लेन की प्रीति।

प्रानन बाजी राखिये, हार होय कै जीत॥7॥

शब्दार्थ / अर्थ : ऐसे प्रेम को कौन सराहेगा, जिसमें लेन-देन का नाता जुड़ा हो! प्रेम क्या कोई खरीद-फरोख्त की चीज है? उसमें तो लगा दिया जाय प्राणों का दांव, परवा नहीं कि हार हो या जीत!

‘रहिमन’ मैन-तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक माहिं।

प्रेम-पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं॥8॥

शब्दार्थ / अर्थ : प्रेम का मार्ग हर कोई नहीं तय कर सकता। बड़ा कठिन है उस पर चलना, जैसे मोम के बने घोड़े पर सवार हो आग पर चलना।

वहै प्रीत नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत।

घटत-घटत ‘रहिमन’ घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत॥9॥

शब्दार्थ / अर्थ : कौन उसे प्रेम कहेगा, जो धीरे-धीरे घट जाता है? प्रेम तो वह, जो एक बार किया, तो घटना कैसा! वह रेत तो है, नहीं, जो हाथ में लेने पर छन-छनकर गिर जाय। (प्रीति की रीति बिलकुल ही निराली है।)

4: राम-नाम

गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।

‘रहिमन’ जगत-उधार को, और न कछू उपाय॥1॥

शब्दार्थ / अर्थ : संसार-सागर के पार ले जानेवाली नाव राम की एक शरणागति ही है। संसार के उद्धार पाने का दूसरा कोई उपाय नहीं, कोई और साधन नहीं।

मुनि-नारी पाषान ही, कपि,पशु,गुह मातंग।

तीनों तारे रामजू, तीनों मेरे अंग॥2॥

शब्दार्थ / अर्थ : राम ने पाषाणी अहल्या को तार दिया, वानर पशुओं को पार कर दिया और नीच जाति के उस गुह निषाद को भी! ये तीनों ही मेरे अंग-अंग में बसे हुए हैं– मेरा हृदय ऐसा कठोर है, जैसा पाषाण। मेरी वृत्तियां, मेरी वासनाएं पशुओं की जैसी हैं, और मेरा आचरण नीचतापूर्ण है। तब फिर, तुझे तारने में तुम्हे संकोच क्या हो रहा है, मेरे राम!

राम नाम जान्यो नहीं, भई पूजा में हानि।

कहि ‘रहीम’ क्यों मानिहैं, जम के किंकर कानि॥3॥

शब्दार्थ / अर्थ : राम-नाम की महिमा मैंने पहचानी नहीं और पूजा-पाठ करता रहा। बात बिगड़ती ही गयी। यमदूत मेरी एक नहीं सुनेंगें, मेरी लाज नहीं बचेगी।

राम-नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि।

कहि ‘रहिम’ तिहि आपुनो, जनम गंवायो बाधि॥4॥

शब्दार्थ / अर्थ : राम-नाम का माहात्म्य तो मैंने जाना नहीं और जिसे जानने का जतन किया, वह सारा व्यर्थ था। राम का ध्यान तो किया नहीं और विषय-वासनाओं से सदा लिपटा रहा। (पशु नीरस खली को तो बड़े स्वाद से खाते हैं, पर गुड़ की डली जबरदस्ती बेमन से गले के नीचे उतारते हैं।)

5:मित्र

मथत-मथत माखन रहे, दही मही बिलगाय।

‘रहिमन’ सोई मीत है, भीर परे ठहराय॥1॥

शब्दार्थ / अर्थ : सच्चा मित्र वही है, जो विपदा में साथ देता है। वह किस काम का मित्र, जो विपत्ति के समय अलग हो जाता है? मक्खन मथते-मथते रह जाता है, किन्तु मट्ठा दही का साथ छोड़ देता है,

जिहि ‘रहीम’ तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन।

तासों दु:ख-सुख कहन की, रही बात अब कौन॥2॥

शब्दार्थ / अर्थ : जिस प्रिय मित्र ने तन और मन पर कब्जा कर रक्खा है और हृदय मे जो सदा के लिए बस गया है, उससे सुख और दु:ख कहने की अब कौन-सी बात बाकी रह गयी है? (दोनों के तन एक हो गये, और मन भी दोनों के एक ही।)

जे गरीब सों हित करें, धनि ‘रहीम’ ते लोग।

कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण-मिताई-जोग॥3॥

शब्दार्थ / अर्थ : धन्य हैं वे, जो गरीबों से प्रीति जोड़ते है! बेचारा सुदामा क्या द्वारिकाधीश कृष्ण की मित्रता के योग्य था?

6:उपालम्भ

जो ‘रहीम’ करबौ हुतो, ब्रज को इहै हवाल।

तो काहे कर पर धर््यौ, गोवर्धन गोपाल॥1॥

शब्दार्थ / अर्थ : हे गोपाल, ब्रज को छोड़कर यदि तुम्हें उसका यही हाल करना था, तो उसकी रक्षा करने के लिए अपने हाथ पर गोवर्धन पर्वत को क्यों उठा लिया था? (प्रलय जैसी घनघोर वर्षा से व्रजवासियों को त्राण देने के लिए पर्वत को छत्र क्यों बना लिया था?)

हरि’रहीम’ ऐसी करी, ज्यों कमान सर पूर।

खेंचि आपनी ओर को, डारि दियौ पुनि दूर॥2॥

शब्दार्थ / अर्थ : जैसे धनुष पर चढ़ाया हुआ तीर पहले तो अपनी तरफ खींचा जाता है, और फिर उसे छोड़कर बहुत दूर फेंक देते हैं। वैसे ही हे नाथ! पहले तो आपने कृपाकर मुझे अपनी और खींच लिया। और फिर इस तरह दूर फेंक दिया कि मैं दर्शन पाने को तरस रहा हूँ।

‘रहिमन’ कीन्ही प्रीति, साहब को भावै नहीं।

जिनके अगनित मीत, हमें गरीबन को गनैं॥3॥

शब्दार्थ / अर्थ : मैंने स्वामी से प्रीति जोड़ी, पर लगता है कि उसे वह अच्छी नहीं लगी। मैं सेवक तो गरीब हूं, और, स्वामी के अगणित मित्र हैं। ठीक ही है, असंख्य मित्रों वाला स्वामी गरीबों की तरफ क्यों ध्यान देने लगा!

7: कितना बड़ा आश्चर्य है!

बिन्दु में सिन्धु समान, को अचरज कासों कहैं।

हेरनहार हिरान, ‘रहिमन’ आपुनि आपमें॥1॥

शब्दार्थ / अर्थ : अचरज की यह बात कौन तो कहे और किससे कहे: लो, एक बूँद में सारा ही सागर समा गया! जो खोजने चला था, वह अपने आप में खो गया। (खोजनहारी आत्मा और खोजने की वस्तु परमात्मा। भ्रम का पर्दा उठते ही न खोजनेवाला रहा और न वह, कि जिसे खोजा जाना था। दोनों एक हो गए। अचरज की बात कि आत्मा में परमात्मा समा गया। समा क्या गया, पहले से ही समाया हुआ था।)

‘रहिमन’ बात अगम्य की, कहनि-सुननि की नाहिं।

जे जानत ते कहत नहिं, कहत ते जानत नाहिं॥2॥

शब्दार्थ / अर्थ : जो अगम है उसकी गति कौन जाने? उसकी बात न तो कोई कह सकता है, और न वह सुनी जा सकती है। जिन्होंने अगम को जान लिया, वे उस ज्ञान को बता नहीं सकते, और जो इसका वर्णन करते है, वे असल में उसे जानते ही नहीं।

8:चेतावनी

सदा नगारा कूच का, बाजत आठौं जाम।

‘रहिमन’ या जग आइकै, को करि रहा मुकाम॥1॥

शब्दार्थ / अर्थ : आठों ही पहर नगाड़ा बजा करता है इस दुनिया से कूच कर जाने का। जग में जो भी आया, उसे एक-न-एक दिन कूच करना ही होगा। किसी का मुकाम यहां स्थायी नहीं रह पाया।

सौदा करौ सो कहि चलो, ‘रहिमन’ याही घाट।

फिर सौदा पैहो नहीं, दूरि जात है बाट॥2॥

शब्दार्थ / अर्थ : दुनिया की इस हाट में जो भी कुछ सौदा करना है, वह कर लो,गफलत से काम नहीं बनेगा। रास्ता वह बड़ा ही लम्बा है, जिस पर तुम्हे चलना होगा। इस हाट से जाने के बाद न तो कुछ खरीद सकोगे, और न कुछ बेच सकोगे।

‘रहिमन’ कठिन चितान तै, चिंता को चित चैत।

चिता दहति निर्जीव को, चिन्ता जीव-समेत॥3॥

शब्दार्थ / अर्थ : चिन्ता यह चिता से भी भंयकर है। सो तू चेत जा। चिता तो मुर्दे को जलाती है, और यह चिन्ता जिन्दा को ही जलाती रहती है।

कागज को सो पूतरा, सहजहिं में घुल जाय।

‘रहिमन’ यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत जाय॥4॥

शब्दार्थ / अर्थ : शरीर यह ऐसा हैं, जैसे कागज का पुतला, जो देखते-देखते घुल जाता है। पर यह अचरज तो देखो कि यह साँस लेता है, और दिन-रात लेता रहता हैं।

तै ‘रहीम’ अब कौन है, एतो खैंचत बाय।

जस कागद को पूतरा, नमी माहिं घुल जाय॥5॥

शब्दार्थ / अर्थ : कागज के बने पुतले के जैसा यह शरीर है। नमी पाते ही यह गल-घुल जाता है। समझ में नहीं आता कि इसके अन्दर जो साँस ले रहा है, वह आखिर कौन है?

‘रहिमन’ ठठरि धूरि की, रही पवन ते पूरि।

गाँठि जुगति की खुल गई, रही धूरि की धूरि॥6॥

शब्दार्थ / अर्थ : यह शरीर क्या है, मानो धूल से भरी गठरी। गठरी की गाँठ खुल जाने पर सिर्फ धूल ही रह जाती है। खाक का अन्त खाक ही है।

9:लोक-नीति

‘रहिमन’ वहां न जाइये, जहां कपट को हेत।

हम तो ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत॥1॥

शब्दार्थ / अर्थ : ऐसी जगह कभी नहीं जाना चाहिए, जहां छल-कपट से कोई अपना मतलब निकालना चाहे। हम तो बड़ी मेहनत से पानी खींचते हैं कुएं से ढेंकुली द्वारा, और कपटी आदमी बिना मेहनत के ही अपना खेत सींच लेते हैं।

सब कोऊ सबसों करें, राम जुहार सलाम।

हित अनहित तब जानिये, जा दिन अटके काम॥2॥

शब्दार्थ / अर्थ : आपस में मिलते हैं तो सभी सबसे राम-राम, सलाम और जुहार करते हैं। पर कौन मित्र है और कौन शत्रु, इसका पता तो काम पड़ने पर ही चलता है। तभी, जबकि किसीका कोई काम अटक जाता है।

खीरा को सिर काटिकै, मलियत लौन लगाय।

‘रहिमन’ करुवे मुखन की, चहिए यही सजाय॥3॥

शब्दार्थ / अर्थ : चलन है कि खीरे का ऊपरी सिरा काट कर उस पर नमक मल दिया जाता है। कड़ुवे वचन बोलनेवाले की यही सजा है।

जो ‘रहीम’ ओछो बढ़ै, तो अति ही इतराय।

प्यादे से फरजी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाय॥4॥

शब्दार्थ / अर्थ : कोई छोटा या ओछा आदमी, अगर तरक्की कर जाता हैं, तो मारे घमंड के बुरी तरह इतराता फिरता है। देखो न, शतरंज के खेल में प्यादा जब फरजी बन जाता है, तो वह टेढ़ी चाल चलने लगता है।

‘रहिमन’ नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि।

दूध कलारिन हाथ लखि, सब समुझहिं मद ताहि॥5॥

शब्दार्थ / अर्थ : नीच लोगों का साथ करने से भला कौन कलंकित नहीं होता है! कलारिन(शराब बेचने वाली) के हाथ में यदि दूध भी हो, तब भी लोग उसे शराब ही समझते हैं।

कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम।

केहि की प्रभुता नहिं घटी पर-घर गये ‘रहीम’॥6॥

शब्दार्थ / अर्थ : गंगा की कितनी बड़ी महिमा है, पर समुद्र में पैठ जाने पर उसकी महिमा घट जाती है। घट क्या जाती है, उसका नाम भी नहीं रह जाता। सो, दूसरे के घर, स्वार्थ लेकर जाने से, कौन ऐसा है, जिसकी प्रभुता या बड़प्पन न घट गया हो?

खरच बढ्यो उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन।

कहु ‘रहीम’ कैसे जिए, थोरे जल की मीन॥7॥

शब्दार्थ / अर्थ : राजा भी निठुर बन गया, जबकि खर्च बेहद बढ़ गया और उद्यम मे कमी आ गयी। ऐसी दशा में जीना दूभर हो जाता है, जैसे जरा से जल में मछली का जीना।

जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय।

ताको बुरो न मानिये, लेन कहां सूँ जाय॥8॥

शब्दार्थ / अर्थ : जिसकी जैसी जितनी बुद्धि होती है, वह वैसा ही बन जाता है, या बना-बना कर वैसी ही बात करता है। उसकी बात का इसलिए बुरा नहीं मानना चाहिए। कहां से वह सम्यक बुद्धि लेने जाय?

जिहि अंचल दीपक दुर््यो, हन्यो सो ताही गात।

‘रहिमन’ असमय के परे, मित्र सत्रु ह्वै जात॥9॥

शब्दार्थ / अर्थ : साड़ी के जिस अंचल से दीपक को छिपाकर एक स्त्री पवन से उसकी रक्षा करती है, दीपक उसी अंचल को जला डालता है। बुरे दिन आते हैं, तो मित्र भी शत्रु हो जाता है।

‘रहिमन’ अँसुवा नयन ढरि, जिय दुख प्रकट करेइ।

जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ॥10॥

शब्दार्थ / अर्थ : आंसू आंखों में ढुलक कर अन्तर की व्यथा प्रकट कर देते हैं। घर से जिसे निकाल बाहर कर दिया, वह घर का भेद दूसरों से क्यों न कह देगा?

‘रहिमन’ अब वे बिरछ कह, जिनकी छाँह गंभीर।

बागन बिच-बिच देखिअत, सेंहुड़ कुंज करीर॥11॥

शब्दार्थ / अर्थ : वे पेड़ आज कहां, जिनकी छाया बड़ी घनी होती थी! अब तो उन बागों में कांटेदार सेंहुड़, कंटीली झाड़ियाँ और करील देखने में आते हैं।

‘रहिमन’ जिव्हा बावरी, कहिगी सरग पताल।

आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल॥12॥

शब्दार्थ / अर्थ : क्या किया जाय इस पगली जीभ का, जो न जाने क्या-क्या उल्टी-सीधी बातें स्वर्ग और पाताल तक की बक जाती है! खुद तो कहकर मुहँ के अन्दर हो जाती है, और बेचारे सिर को जूतियाँ खानी पड़ती है!

‘रहिमन’ तब लगि ठहरिए, दान, मान, सनमान।

घटत मान देखिय जबहिं, तुरतहि करिय पयान॥13॥

शब्दार्थ / अर्थ : तभी तक वहां रहा जाय, जब तक दान, मान और सम्मान मिले। जब देखने में आये कि मान-सम्मान घट रहा है, तो तत्काल वहां से चल देना चाहिए।

‘रहिमन’ खोटी आदि को, सो परिनाम लखाय।

जैसे दीपक तम भखै, कज्जल वमन कराय॥14॥

शब्दार्थ / अर्थ : जिसका आदि बुरा, उसका अन्त भी बुरा। दीपक आदि में अन्धकार का भक्षण करता है, तो अन्त में वमन भी वह कालिख का ही करता हैं। जैसा आरम्भ, वैसा ही परिणाम।

‘रहिमन’ रहिबो वह भलो, जौं लौं सील समुच।

सील ढील जब देखिए, तुरंत कीजिए कूच ॥15॥

शब्दार्थ / अर्थ : तभी तक कहीं रहना उचित हैं, जब तक की वहाँ शील और सम्मान बना रहे । शील-सम्मान में ढील आने पर उसी वक्त वहाँ से चल देना चाहिए ।

धन थोरो, इज्जत बड़ी, कहि ‘रहीम’ का बात।

जैसे कुल की कुलबधू, चिथड़न माहिं समात ॥16॥

शब्दार्थ / अर्थ : पैसा अगर थोडा है, पर इज्जत बड़ी है, तो यह कोइ निन्दनीय बात नहीं । खानदानी घर की स्त्री चिथड़े पहनकर भी अपने मान की रक्षा कर लेती हैं

धनि ‘रहीम’ जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय ।

उदधि बड़ाई कौन हैं, जगत पियासो जाय ॥17॥

शब्दार्थ / अर्थ : कीचड़ का भी पानी धन्य हैं,जिसे पीकर छोटे-छोटे जीव-जन्तु भी तृप्त हो जाते हैं। उस समुन्द्र की क्या बड़ाई, जहां से सारी दुनिया प्यासी ही लौट जाती हैं ?

अनुचित बचत न मानिए, जदपि गुरायसु गाढ़ि ।

हैं ‘रहीम’ रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढ़ि ॥18॥

बड़ो की भी ऐसी आज्ञा नहीं माननी चाहिए, जो अनुचित हो। पिता का वचन मानकर राम वन को चले गए । किन्तु भरत ने बड़ो की आज्ञा नहीं मानी, जबकी उनको राज करने को कहा गया था फिर भी राम के यश से भरत का यश महान् माना जाता हैं । (तुलसीदास जी ने बिल्कुल सही कहा हैं कि ‘जग जपु राम, राम जपु जेही’ अर्थात् संसार जहां राम का नाम का जाप करता हैं, वहां राम भरत का नाम सदा जपते रहते हैं ।

अब ‘रहीम’ मुसकिल पड़ी, गाढ़े दोऊ काम ।

सांचे से तो जग नहीं, झुठे मिलै न राम ॥19॥

शब्दार्थ / अर्थ : बडी मुश्किल में आ पड़े कि ये दोनों ही काम बड़े कठिन हैं । सच्चाई से तो दुनिया दारी हासिल नही होती हैं, लोग रीझते नही हैं, और झूठ से राम की प्राप्ति नहीं होती हैं । तो अब किसे छोडा जाए, और किससे मिला जाए ?

आदर घटै नरेस ढिग बसे रहै कछु नाहीं ।

जो ‘रहीम’ कोटिन मिलै, धिक जीवन जग माहीं ॥20॥

शब्दार्थ / अर्थ : राजा के बहुत समीप जाने से आदर कम हो जाता है। और साथ रहने से कुछ भी मिलने का नही। बिना आदर के करोड़ों का धन मिल जाए, तो संसार में धिक्कार हैं ऐसे जीवन को !

आप न काहू काम के, डार पात फल फूल।

औरन को रोकत फिरै, ‘रहिमन’ पेड़ बबूल॥21॥

शब्दार्थ / अर्थ : बबूल का पेड़ खुद अपने लिए भी किस काम का? न तो डालें हैं, न पत्ते हैं और न फल और फूल ही। दूसरों को भी रोक लेता है, उन्हें आगे नहीं बढ़ने देता।

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।

‘रहिमन’ मूलहि सींचिबो, फूलहि फलहि अघाय॥22॥

शब्दार्थ / अर्थ : एक ही काम को हाथ में लेकर उसे पूरा कर लो। सबमें अगर हाथ डाला, तो एक भी काम बनने का नहीं। पेड़ की जड़ को यदि तुमने सींच लिया, तो उसके फूलों और फलों को पूर्णतया प्राप्त कर लोगे।

अन्तर दावा लगि रहै, धुआं न प्रगटै सोय।

के जिय जाने आपनो, जा सिर बीती होय॥23॥

शब्दार्थ / अर्थ : आग अन्तर में सुलग रही है, पर उसका धुआं प्रकट नहीं हो रहा है। जिसके सिर पर बीतती है, उसीका जी उस आग को जानता है। कोई दूसरे उस आग का यानी दु:ख का मर्म समझ नहीं सकते।

कदली,सीप,भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन।

जैसी संगति बैठिए, तैसोई फल दीन॥24॥

शब्दार्थ / अर्थ : स्वाती नक्षत्र की वर्षा की बूँद तो एक ही हैं, पर उसके गुण अलग-अलग तीन तरह के देखे जाते है ! कदली में पड़ने से, कहते है कि, उस बूंद का कपूर बन जाता है ! ओर,अगर सीप में वह पड़ी तो उसका मोती हो जाता है ! साप के मुहँ के में गिरने से उसी बूँद का विष बन जाता है ! जैसी संगत में बैठोगे, वेसा ही परिणाम उसका होगा ! (यह कवियों की मान्यता है, ओर इसे ‘कवि समय’ कहते है !)

कमला थिर न ‘रहिम’ कहि, यह जानत सब कोय !

पुरूष पुरातन की वधू, क्यों न चंचला होय ॥25॥

लक्ष्मी कहीं स्थिर नहीं रहती ! मूढ़ जन ही देखते है कि वह उनके घर में स्थिर होकर बेठ गइ है । लक्ष्मी प्रभु की पत्नी है, नारायण की अर्धांगिनी है। उस मूर्ख की फजीहत कैसे नहीं होगी, जो लक्ष्मी को अपनी कहकर या अपनी मानकर चलेगा।

करत निपुनई गुन बिना, ‘रहिमन’ निपुन हजूर।

मानहुं टेरत बिटप चढि, मोहि समान को कूर॥26॥

शब्दार्थ / अर्थ : बिना ही निपुणता और बिना ही किसी गुण के जो व्यक्ति बुद्धिमानों के आगे डींग मारता फिरता है। वह मानो वृक्ष पर चढ़कर घोषणा करता है निरी अपनी मूर्खता की।

कहि ‘रहिम’ संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति।

बिपति-कसौटी जे कसे, सोई सांचे मीत॥27॥

शब्दार्थ / अर्थ : धन सम्पत्ति यदि हो, तो अनेक लोग सगे-संबंधी बन जाते है। पर सच्चे मित्र तो वे ही है, जो विपत्ति की कसौटी पर कसे जाने पर खरे उतरते है। सोना सच्चा है या खोटा, इसकी परख कसौटी पर घिसने से होती है। इसी प्रकार विपत्ति में जो हर तरह से साथ देता हैं, वही सच्चा मित्र है।

कहु ‘रहीम’ कैसे निभै, बेर केर को संग।

वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग॥28॥

शब्दार्थ / अर्थ : बेर और केले के साथ-साथ कैसे निभाव हो सकता है ? बेर का पेड़ तो अपनी मौज में डोल रहा है, पर उसके डोलने से केले का एक-एक अंग फटा जा रहा है । दुर्जन की संगती में सज्जन की ऐसी ही गति होती है ।

कहु ‘रहीम’ कैतिक रही, कैतिक गई बिहाय ।

माया ममता मोह परि, अन्त चले पछीताय ॥29॥

शब्दार्थ / अर्थ : आयु अब कितनी रह गयी है, कितनी बीत गई है । अब तो चेत जा । माया में, ममता में और मोह में फँसकर अन्त में फछतावा ही साथ लेकर तू जायगा ।

काह कामरी पामड़ी, जाड़ गए से काज ।

‘रहिमन’ भूख बुताइए, कैस्यो मिले अनाज ॥30॥

शब्दार्थ / अर्थ : क्या तो कम्बल और क्या मखमल का कपड़ा ! असल में काम का तो वही है, जिससे कि जाड़ा चला जाय । खाने को चाहे जैसा अनाज मिल जाय, उससे भूख बुझनी चाहिए । (तुलसीदासजी ने भी यही बात कही है कि ;- का भाषा, का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच । काम जो आवै कामरी, का लै करै कमाच ॥)

कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों बैर ।

‘रहिमन’ बसि सागर विषे, करत मगर सों बैर ॥31॥

शब्दार्थ / अर्थ : सहजोर के साथ बैर बिसाहने से कमजोर का कैसे निबाह होगा ? सबल दबोच लेगा निर्बल को। समुद्र के किनारे रहकर यह तो मगर से बैर बाँधना हुआ ।

कोउ ‘रहीम’ जहिं काहुके, द्वार गए पछीताय ।

संपति के सब जात हैं, बिपति सबै ले जाय ॥32 ॥

शब्दार्थ / अर्थ : किसी के दरवाजे पर जाकर पधताना नहीं चाहिए । धनी के द्वार तो सभी जाते हैं । यह विपत्ति कहाँ-कहाँ नहीं ले जाती है !

खैर , खुन, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीति, मद-पान ।

‘रहिमन’ दाबे ना दबै, जानत सकल जहान ॥35॥

शब्दार्थ / अर्थ : दिनिया जानती है कि ये चीजें दबाने से नहीं दबतीं, छिपाने से नहीं छिपतीं : खैर अर्थात कुशल , खून (हत्या), खाँसी, खुशी बैर, प्रीति और मदिरा-पान । [खैर कत्थे को भी कहते हैं, जिसका दाग कपड़े पर साफ दीख जाता है ।]

गरज आपनी आप सों , ‘रहिमन’ कही न जाय ।

जैसे कुल की कुलबधू, पर घर जात लजाय ॥34 ॥

शब्दार्थ / अर्थ : अपनी गरज की बात किसी से कही नहीं जा सकती । इज्जतदार आदमी ऐसा करते हुए शर्मिन्दा होता है, अपनी गरज को वह मन में ही रखता है । जैसे कि किसी कुलवधू को पराये घर में जाते हुए शर्म आती है ।

छिमा बड़ेन को चाहिए , छोटन को उतपात ।

का ‘रहीम’ हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात ॥35॥

शब्दार्थ / अर्थ : बड़े आदमियों को क्षमा शोभा देती है । भृगु मुनि ने विष्णु को लात मारदी, तो उससे उनका आदर कहाँ कम हुआ ?

जब लगि वित्त न आपुने , तब लगि मित्र न होय ।

‘रहिमन’ अंबुज अंबु बिनु, रवि नाहिंन हित होय ॥36॥

शब्दार्थ / अर्थ : तब तक कोई मित्रता नहीं करता, जबतक कि अपने पास धन न हो । बिना जल के सूर्य भी कमल से अपनी मित्रता तोड़ लेता है ।

जे ‘रहीम’ बिधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि ।

चंद्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत तें बाढ़ि ॥37॥

शब्दार्थ / अर्थ : विधाता ने जिसे बड़ाई देकर बड़ा बना दिया, उसमें दोष कोई निकाल नहीं सकता । चन्द्रमा सभी नक्षत्रों से अधिक प्रकाश देता है, भले ही वह दुबला और कूबड़ा हो ।

जैसी परै सो सहि रहे , कहि ‘रहीम’ यह देह ।

धरती ही पर परग है , सीत, घाम औ’ मेह ॥38॥

शब्दार्थ / अर्थ : जो कुछ भी इस देह पर आ बीते, वह सब सहन कर लेना चाहिए । जैसे, जाड़ा, धूप और वर्षा पड़ने पर धरती सहज ही सब सह लेती है । सहिष्णुता धरती का स्वाभाविक गुण है ।

जो घर ही में गुसि रहे, कदली सुपत सुडील ।

तो ‘रहीम’ तिनते भले, पथ के अपत करील ॥39॥

शब्दार्थ / अर्थ : केले के सुन्दर पत्ते होते हैं और उसका तना भी वैसा ही सुन्दर होता है । किन्तु वह घर के अन्दर ही शोभित होता है । उससे कहीं अच्छे तो करील हैं , जिनके न तो सुन्दर पत्ते हैं और न जिनका तन ही सुन्दर है, फिर भी करील रास्ते पर होने के कारण पथिकों को अपनी ओर खींच लेता है ।

जो बड़ेन को लघु कहै, नहिं ‘रहीम’ घटि जाहिं ।

गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं ॥40 ॥

शब्दार्थ / अर्थ : बड़े को यदि कोई छोटा कह दे, तो उसका बड़प्पन कम नहीं हो जाता । गिरिधर श्रीकृष्ण मुरलीधर कहने पर कहाँ बुरा मानते हैं ?

जो ‘रहीम’ गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।

बारे इजियारो लगे , बढ़े अंधेरो होय ॥41॥

शब्दार्थ / अर्थ : दीपक की तथा कुल में पैदा हुए कुपूत की गति एक-सी है । दीपक जलाया तो उजाला हो गया और बुझा दिया तो अन्धेरा-ही-अंधेरा । कुपूत बचपन में तो फ-यारा लगता है और बड़ा होने पर बुरी करतूतों से अपने कुल की कीर्ति को नष्ट कर देता है ।

जो ‘रहीम’ मन हाथ है, तो तन कहुँ किन जाहि ।

जल में जो छाया परे ,काया भीजति नाहिं ॥42॥

शब्दार्थ / अर्थ : मन यदि अपने हाथ में है, अपने काबू में है, तो तन कहीं भी चला जाय, कुछ बिगड़ने का नहीं । जैसे काया भीगती नहीं है, जल में उसकी छाया पड़ने पर । [जीत और हार का कारण मन ही है, तन नहीं : ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार ‘।]

जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटात ।

ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खात ॥43॥

शब्दार्थ / अर्थ : संतजन जिन विषय-वासनाओं का त्याग कर देते हैं, उन्हीं को पाने के लिए मूढ़ जन लालायित रहते हैं । जासे वमन किया हुआ अन्न कुत्ता बड़े स्वाद से खाताहै ।

तबही लौं जीवो भलो, दीबो होय न धीम ।

जग में रहिबो कुचित गति, उचित होय ‘रहीम’ ॥44॥

शब्दार्थ / अर्थ : जीना तभी तक अच्छा है, जबतक कि दान देना कम न हो संसार में दान-रहित जीवन कुत्सित है । उसे सफल कैसे कहा जा सकता है ?

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहिं न पान ।

कहि ‘रहीम’ परकाज हित, संपति सँचहिं सुजान ॥45॥

शब्दार्थ / अर्थ : वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते और तालाब अपना पानी स्वयं नहीं पीते । दूसरों के हितार्थ ही सज्जन सम्पत्ति का संचय करते हैं । उनकी विभूति परोपकार के लिए ही होती है ।

थोथे बादर क्वार के, ज्यों ‘रहीम’ घहरात ।

धनी पुरुष निर्धन भये, करैं पाछिली बात ॥46॥

शब्दार्थ / अर्थ : क्वार मास में पानी से खाली बादल जिस प्रकार गरजते हैं, उसी प्रकार धनी मनुष्य जब निर्धन हो जाता है, तो अपनी बातों का बारबार बखान करता है ।

थोरी किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय ।

ज्यों ‘रहीम’ हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय ॥47॥

शब्दार्थ / अर्थ : अगर बड़ा आदमी थोड़ा सा भी काम कुछ कर दे, तो उसकी बड़ी प्रशंसा की जाती है । हनुमान इतना बड़ा द्रोणाचल उठाकर लंका ले आये, तो भी उनकी कोई ‘गिरिधर’ नहीं कहता । (छोटा-सा गोवर्धन पहाड़ उठा लिया, तो कृष्ण को सभी गिरिधर कहने लगे ।)

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखे न कोय ।

जो ‘रहीम’ दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय ॥48॥

शब्दार्थ / अर्थ : गरीब की दृष्टि सब पर पड़ती है, पर गरीब को कोई नहीं देखता । जो गरीब को प्रेम से देखता है, उसकी मदद करता है, वह दीनबन्धु भगवान् के समान हो जाता है ।

दोनों ‘रहिमन’ एक से, जौ लों बोलत नाहिं ।

जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माहिं ॥49॥

शब्दार्थ / अर्थ : रूप दोनों का एक सा ही है, धोखा खा जाते हैं पहचानने में कि कौन तो कौआ है और कौन कोयल । दोनों की पहचान करा देती है, वसन्त ऋतु, जबकि कोयल की कूक सुनने में मीठी लगती है और कौवे का काँव-काँव कानों को फाड़ देता है । (रूप एक-सा सुन्दर हुआ, तो क्या हुआ ! दुर्जन और सज्जन की पहचान कडुवी और मीठी वाणी स्वयं करा देती है ।)

धूर धरत नित सीस पै, कहु ‘रहीम’ केहि काज ।

जेहि रज मुनि-पतनी तरी, सो ढूंढत गजराज ॥50॥

शब्दार्थ / अर्थ : हाथी नित्य क्यों अपने सिरपर धूल को उछाल-उछालकर रखता है ? जरा पूछो तो उससे उत्तर है:- जिस (श्रीराम के चरणों की) धूल से गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गयी थी, उसे ही गजराज ढूंढता है कि वह कभी तो मिलेगी ।

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत ।

ते ‘रहीम’ पसु से अधिक, रीझेहु कछू न देत ॥51॥

शब्दार्थ / अर्थ : गान के स्वर पर षीझ कर मृग अपना शरीर शिकारी को सौंप देता है । और मनुष्य धन-दौलत पर प्राण गंवा देता है । परन्तु वे लोग पशु से भी गये बीते हैं, जो रीझ जाने पर भी कुछ नहीं देते । (सूम का यशोगान कितना सटीक हुआ है इस दोहे में !)

निज कर क्रिया ‘रहीम’ कहि, सिधि भावी के हाथ ।

पाँसा अपने हाथ में, दाँव न अपने हाथ ॥52॥

शब्दार्थ / अर्थ : कर्म करना तो अपने हाथ में है, पर उसकी सफलता दैव के हाथ में है । देख लो न चौपड़ के खेल में– पांसा अपने हाथ में है, पर दाँव अपने हा

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