श्री उद्धव के ब्रज में पहुँचने के समय के कवित्त
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दुख सुख ग्रीषम औ सिसिर न ब्यापै जिन्हैं छापै छाप एकै हियै ब्रह्म-ज्ञान-साने मैं ।
कहै रतनाकर गंभीर सोई उधव कौ धीर उधरान्यौ आनि ब्रज के सिवाने मैं ।।
औरे मुख-रंग भयौ सिथिलित अंग भयौ बैन दबि दंग भयौ गर गरुवाने मैं ।
पुलकि पसीजि पास चाँपि मुरझाने काँपि जानैं कौन बहति बयारि बरसाने मैं ।।
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धाईं धाम-धाम तैं अवाई सुनि ऊधव की बाम-बाम लाख अभिलाषनि सौं भ्वैं रहीं ।
कहै रतनाकर पै बिकल बिलोकि तिन्हैं सकल करेजौ थामि आपुनपौ ख्वै रहीं ।।
लेखि निज-भाग-लेख रेख तिन आनन की जानन की ताहि आतुरी सौं मन म्वै रहीं ।
आँस रोकि साँस रोकि पूछन-हुलास रोकि मूरति निरास की सी आस-भरी ज्वै रहीं ।।
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भेजे मनभावन के ऊधव के आवन की सुधि ब्रज-गाँवनि मैं पावन जबै लगीं ।
कहै रतनाकर गुवालिनि की झौरि-झौरि दौरो-दौरि नंद-पौरि आवन तबै लगीं ।।
उझकि-उझकि पद-कंजनि के पंजनि पै पेखि-पेखि पाती छाती छोहनि छबै लगी ।
हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा कहन सबै लगीं ।।
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देखि देखि आतुरी बिकल ब्रज-बारिन की ऊधव की चातुरी सकल बहि जाति हैं ।
कहै रतनाकर कुसल कहि पूछि रहे अपर सनेस की न बातैं कहि जाति हैं ।।
मौन रसना ह्वै जोग जदपि नजायौ सबै
तदपि निरास-बासना न गहि जाति हैं ।
साहस कै कछुक उमाहि पूछिबैं कौं ठाहि
चाहि उत गोपिका कराहि रहि जाति हैं ।।
33
दीन दसा देखि ब्रज-बालनि की ऊधव कौ गरि गौ गुमान ज्ञान गौरव गुठाने से ।
कहै रतनाकर न आए मुख बैन नैन नीर भरि ल्याए भए सकुचि सिहाने से ।।
सूखे से स्रमे से सकबके से सके से थके भूले से भ्रमे से भभरे से भकुवाने से ।
हौले से हले से हूल-हूले से हिये मैं हाय हारे से हरे से रहे हेरत हिराने से ।।
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मोह-तम-रासि नासिबे कौं स-हुलास चले ककौ प्रकास पारि मति रति-माती पर ।
कहै रतनाकर पै सुधि उधिरानी सबै धूरि परी धीर जोग-जुगति सँघाती पर ।।
चलत विषम ताती बात-ब्रज-बारनि की विपति महान परी ज्ञान-बरी बाती पर ।।
लच्छ दुरे सकल बिलोकत अलच्छ रहें एक हाथ पाती एक हाथ दिये छाती पर ।।