उध्दव जी के कवित्त

गोपी-वचन उद्धव-प्रति ………… ……………………………………………………

43 रस के प्रयोगनि के सुखद सु जोगनि के जेते उपचार चारु मंजु सुखदाई हैं । तिनके चलावन की चरचा चलावै कौन देत ना सुदर्शन हूँ यौं सुधि सिराई हैं ।। करत उपाय ना सुभाय लखि नारिनि कौ भाय क्यौं अनारिनि कौ भरत कन्हाई हैं । ह्याँ तौ बिषमज्वर-बियोग की चढ़ाई यह पाती कौन रोग की पठावत दवाई हैं ।।

44 ऊधौ कहौ सूधौ सौ सनेस पहिलैं तौ यह

प्यारे परदेस तैं कबै धौं पग पारिहैं । कहै रतनाकर तिहारी परि बातनि मैं मीड़ि हम कबलौं करेजौ मन मारिहैं ।। लाइ-लाइ पाती छाती कब लौं सिरैहैं हाय धरि-धरि ध्यान धीर कब लगि धारिहैं । बैननि उचारिहैं उराहनौ कबै धौं सबै स्याम कौ सलोनौ रूप नैननि निहारिहैं ।।

45 षटरस-ब्यंजन तौ रञ्जन सदा ही करैं ऊधौ नवनीत हूँ स-प्रीति कहूँ पावै हैं । कहै रतनाकर बिरद तौ बखानै सबै साँची कहौ केते कहि लालन लड़ावैं हैं ।। रतन-सिंहासन बिराजि पाकसअसन लौं जग-चहुँ-पासनि तौ सासन चलावैं हैं । जाइ जमुना-तट पै कोऊ बट-छाहिं माहिं पाँसुरी उमाहि कबौं बासुरी बजावै हैं ।।

46 कान्ह-दूत कैधौं ब्रह्म-दूत है पधारे आप धारे प्रन फेरन को मति ब्रजबारी की ।

कहै रतनाकर पै प्रीति-रीति जानत ना ठानत अनीति आनि नीति लै अनारी की ।। मान्यौ हम, कान्ह ब्रह्म एक ही, कह्यौ जो तुम तौहूँ हमें भावति ना भावना अन्यारी की । जैहै बनि-बिगरि न बारिधिता बारिधि की बूँदता बिलैहै बूँद बिबस बिचारी की ।।

47 चोप करि चंदन चढ़ायौ जिन अँगनि पै तिनपै बजाइ तूरि धूरि दरिबौ कहौ । रस रतनाकर स-नेह निरवार््यौ जाहि ता कच कौं हाय जटा-जूट बरिबौ कहौ ।। चंद अरबिंद लौं सराह्यौ ब्रजचंद जाहि ता मुख कौं काकचञ्चवत करिबौ कहौ । छेदि छेदि छाती छलनी कै बैन-बाननि सौं

तामैं पुनि ताइ धीर-नीर धरिबौ कहौ ।।

48 चिंता-मनि मंजुल पँवारि धूरि-धारनि मैं काँच-मन-मुकुर सुधारि रखिबौ कहौ । कहै रतनाकर बियोग-आगि सारन कौं ऊधौ हाय हमकौं बयारि भखिबौ कहौ ।। रूप-रस-हीन जाहि निपट निरूपि चुके ताकौ रूप ध्याइबौ औ रस चखिबौ कहौ । एते बड़े बिस्व माहिं हेरैं हूँ न पैयै जाहि, ताहि त्रिकुटी मैं नैन मूँदि लखिबौ कहौ ।।

49 आए हौ सिखावन कौं जोग मथुरा तैं तौपै ऊधौ ये बियोग के बचन बतरावौ ना । कहै रतनाकर दया करि दरस दीन्यौ दुख दरिबै कौं, तौपे अधिक बढ़ावौ ना ।। टूक-टूक ह्वैहै मन-मुकुर हमारौ हाय चूकि हूँ कठोर-बैन पाहन चलावौ ना । एक मनमोहन तौ बसिकै उजार््यौ मोहिं हिय मैं अनेक मनमोह बसावौ ना ।।

50 चुप रहौ ऊधौ सूधौ पथ मथुरा कौ गहौ कहौ न कहानी जौ बिबिध कहि आए हौ । कहै रतनाकर न बूझिहैं बुझाऐं हम

करत उपाय बृथा भारी भरमाए हौ ।। सरल स्वभाव मृदु जानि परौ ऊपर तैं पर उर धाय-करि लौन सौ लगाए हौ । रावरी सुधाई मैं भरी है कुटिलाई कूटि बात की मिठाई मैं लुनाई लाइ ल्याए हौ ।।

51 नेम ब्रत संजम के पींजरें परे को जब लाज-कुल-कानि-प्रतिबंधहिं निवारि चुकीँ । कौन गुन गौरव कौ लंगर लगावै जब सुधि बुधि ही कौ भार टेक करि टारि चुकीं ।। जोग-रतनाकर मैं साँस घूँटि बूड़ै कौन ऊधौ हम सूधौ यह बानक बिचारि चुकीं । मुक्ति-मुकता कौ मोल माल ही कहा है जब मोहन लला पै मन-मानिक ही वारि चुकीं ।।

52 ल्याए लादि बादि हीं लगावन हमारे गरैं हम सब जानी कहौ सुजस-कहानी ना । कहै रतनाकर गुनाकर गुबिंद हूँ कैं गुननि अनंत बेधि सिमिटि समानी ना ।। हाथ बिन मोल हूँ बिकी न मग हूँ मैं कहूँ तापै बटपार-टोल लोल हूँ लुभानी ना । केती मिली मुकति बधू बर के कूबर मैं ऊबर भई जो मधुपुर मैं समानी ना ।।

53 हम परतच्छ मैं प्रमान अनुमाने नाहि तुम भ्रम-भौंर मैं भलैं हीं बहिबौ करौ । कहै रतनाकर गुबिंद-ध्यान धारैं हम तुम मनमानौ ससा-सिंग गहिबो करौ ।। देखति सो मानति हैं सूधौ न्यावजानति हैं ऊधौ ! तुम देखि हूँ अदेख रहिबौ करो । लखि ब्रज-भूप-रूप अलख अरूप ब्रह्म हम न कहैंगी तुम लाख कहिबौ करौ ।।

54 रंग-रूप-रहित लखात सबही हैं हमैं वैसो एक और ध्याइ धीर धरिहैं कहा । कहै रतनाकर जरी हैं बिरहानल मैं और अब जोति कौं जगाइ जरिहैं कहा ।। राखौ धरि ऊधौ उतै अलख अरूप ब्रह्म तासौं काज कठिन हमारे सरिहैं कहा । एक ही अनंग सादि साध सब पूरीं अब और अंग-रहित अराधि करिहैं कहा ।।

55 कर बिनु कैसैं गाँय दूहिहै हमारी वह पद-बिनु कैसैं नाचि थिरकि रिझाइहै । कहै रतनाकर बदन-बिनु कैसैं चाखि माखन बजाइ बेनु गोधन गवाइहै ।। देखि सुनि कैसैं दृग स्रवन बिनाहीं हाय भोरे ब्रजबासिनि की बिपति वराइहै । रावरौ अनूप कोऊ अलख अरूप ब्रह्म ऊधौ कहौ कौन धौं हमारैं काम आइहै।।

56 वे तौ बस बसन रँगावैं मन रंगत ये भसम रमावैं वे ये आपुहीं भसम हैं । साँस साँस माहिं बहु बासर बितावत वे इनकैं प्रतेक साँस जात ज्यौं जनम हैं ।। ह्वै कै जग-भुक्ति सौं बिरक्त मुक्ति चाहत वे जानत ये भुक्ति मुक्ति दोऊ बिष-सम हैं । करिकै बिचार ऊधौ सूधौ मन माहिं लखौ जोगी सौं बियोग-भोग-भोगी कहा कम हैं ।।

57 जोग को रमावै औ समाधि को जगावै इहाँ दुख-सुख साधनि सौं निपट निबेरी हैं । कहै रतनाकर न जानैं क्यौं इतै धौं आइ साँसनि की सासना की बासना बखेरी हैं ।। हम जमराज की धरावतिं जमा न कछू सुर-पति-संपत्ति की चाहति न ढेरी हैं । चेरी हैं न ऊधो ! काहू ब्रह्म के बबा की हम सुधौ कहे देतिं एक कान्ह की कमेरी हैं ।।

58 सरग न चाहैं अपबरग न चाहैं सुनो भुक्ति-मुक्ति दोऊ सौं बिरक्ति उर आनैं हम । कहै रतनाकर तिहारे जोग-रोग माहिं तन मन साँसनि की साँसति प्रमानैं हम ।। एक ब्रजचंद कृपा-मंद-मुसकानि हीं मैं लोक परलोक कौ अनंद जिय जानैं हम । जाकै या बियोग दुख हूँ सुख मैं ऐसौ कछू जाहि पाइ ब्रह्म-सुख हू मैं दुख मानैं हम ।।

59 जग सपनों सौ सब परत दिखाई तुम्हैं तातैं तुम ऊधौ हमैं सोवत लखात हौ । कहै रतनाकर सुनै को बात सोवत की जोई मुँह आवत सो बिबस बयात हौ ।। सौवत मैं जागत लखत अपने कौं जिमि त्यौंहीं तुम आपहीं सुज्ञानी समुझात हौ । जोग जोग कबहूँ न जानैं कहा जोहि जकौ ब्रह्म ब्रह्म कबहूँ बहकि बररात हौ ।।

60 ऊधौ यह ज्ञान कौ बखान सब बाद हमै सूधौ बाद छाँड़ि बकबादहिं बढ़ावै कौन । कहै रतनाकर बिलाय ब्रह्म काय माहिं आपने सौं आपुनौ आपुनौ नसावै कौन ।। काहू तौ जनम मैं मिलैंगी स्यामसुन्दर कौं याहू आस प्रानायाम-साँस मैं उड़ावै कौन । परि कै तिहारी ज्योति-ज्वाल की जगाजग मैं फेरि जग जाइबै की जुगती जरावै कौन ।।

61 वाही मुख मंजुल की चहतिं मरीचैं सदा हमकौं तिहारी ब्रह्म-ज्योति करिबौ कहा । कहै रतनाकर सुधाकर-उपासिनि कौं भानु की प्रभानि कैं जुहारि जरिबौ कहा ।। भोगि रहीं बिरचे बिरंचि के सँजोग सबै ताके सोग सारन कौं जोग चरिबौ कहा । जब ब्रजचंद कौ चकोर चित चारू भयौ बिरह-चिंगारिनि सौं फेरि डरिबौ कहा ।।

62 ऊधौ जम-जातना की बात न चलावौ नैं कु अब दुख सुख कौ बिबेक करिबौ कहा । प्रेम-रतनाकर-गँभीर-परे मीननि कौं इहिं भव-गोपद की भीति भरिबौ कहा ।। एकै बार लैहैं मरि मीच की कृपा सौं हम रोकि-रोकि साँस बिनु मीच मरिबौ कहा । छिन जिन झेली कान्ह-बिरह-बलाय तिन्हैं नरक-निकाय की धरक धरिबौ कहा ।।

63 जोगिनि की भोगनि की बिकल बियोगिनि की जग मैं न जागती जमातैं रहि जाइँगी । कहै रतनाकर न सुख के रहे जौ दिन तौ ये दुख-द्वंद की न रातैं रहि जाइँगी ।। प्रेम-नेम छाँड़ि ज्ञान-छेम जो बतावत सो भीति ही नहीं तौ कहा छातैं रहि जाइँगी । घातैं रहि जाइँगी न कान्ह की कृपा तैं इती ऊधौ कहिबै कौं बस बातैं रहि जाइगी ।।

64 कठिन करेजौ जो न करक्यौ बियोग होत तापर तिहारौ जंत्र मंत्र खँचिहै नहीं । कहै रतनाकर बरी हैं बिरहानल मैं ब्रह्म की हमारैं जियय जोति जँचिहै नहीं ।। ऊधौ ज्ञान-भान की प्रभानि ब्रजचंद बिना चहकि चकोर चित चोपि नचिहै नहीं । स्याम-रंग-राँचे हिय हम ग्वारिनि कैं जोग की भगौंहीं भेष-रेख रँचिहै नहीं ।।

65 नैननि के नीर औ उसीर सौं पुलकावलि जाहि करि सीरौ सीरी बातहिं बिलासैं हम । कहै रतनाकर तपाई बिरहातप की आवन न देतिं जामैं विषम उसासैं हम ।। सोई-मन-मंदिर तपावन के काज आज रावरे कहै तैं ब्रह्म-जोति लै प्रकासैं हम । नंद के कुमार सुकुमार कौं बसाइ यामैं ऊधौ अब आइ कै बिसास उदबासैं हम ।।

66 जोहै अभिराम स्याम चित की चमक ही मैं और कहा ब्रह्म की जगाइ जोति जोहैंगी । कहै रतनाकर तिहारी बात ही सौं रुकी साँस की न साँसति कै औरौं अवरौहैंगी ।। आपुही भई हैं मृगछाला ब्रज-बाला सूखि तिनपै अपर मृगछाला कहा सोहैंगी । ऊधौ मुक्ति-माल बृथा मढ़त हमारे गरैं कान्ह बिना तासौं कहौ काकौ मन मोहैंगी ।।

67 कीजै ज्ञान भानु कौ प्रकास गिरि-सृंगनि पै ब्रज मैं तिहारी कला नैंकु खटिहैं नहीं । कहै रतनाकर न प्रेम-तरु पैहै सूखि याकी डार-पात तृन-तूल घटिहैं नहीं ।। रसना हमारी चारू चातकी बनी हैं ऊधौ पी-पी की बिहाइ और रट रटिहैं नहीं । लौटि=पौटि बात कौ बवंडर बनावत क्यौं हिय तैं हमारे घनस्याम हटिहैं नहीं ।।

68 नैननि के आगैं नित नाचत गुपाल रहैं । ख्याल रहैं सोई जो अनन्य-रसवारे हैं । कहै रतनाकर सो भावना भरीयै रहै जाकै चाव भाव रचैं उर मैं अखारे हैं ।। ब्रह्म हूँ भए पै नारि ऐसियै बनी जौ रहैं तौ तौ सहैं सीस सबै बैन जो तिहारे हैं । यह अभिमान तौ गवै हैं ना गये हूँ प्रान हम उनकी हैं वह प्रीतम हमारे हैं ।।

69 सुनी गुनी समझीं तिहारी चतुराई जिती कान्ह की पढ़ाई कविताई कुबरी की हैं । कहै रतनाकर त्रिकाल हू त्रिलोक हू मैं आनैं अन नैंकु ना त्रिदेव की कहीं की हैं ।। कहहिं प्रतीति प्रीति नीति हूँ त्रिबाचा बाँधि ऊधौ साँच मन की हिये की अरुजी की हैं । वै तौ हैं हमारे ही हमारे ही और हम उनही की उनही की उनही की हैं ।।

70 नेम ब्रत संजम कै आसन अखंड लाइ साँसनि कौं घूँटिहैं जहाँ लौं गिलि जाइगौ । कहै रतनाकर धरैगी मृगछाला अरु धूरि हूँ दरैंगी जऊ अंग छिलि जाइगो ।। पाँच आँचि हूँ की झार झेलिहैं निहारि जाहि रावरौ हू कठिन करेजौ हिलि जाइगौ । सहिहैं तिहारे कहै साँसति तबै पै बस एती कहि देहु कै कन्हैया मिलि जाइगौ ।।

71 साधि लैहैं जोग के जटिल जे बिधान ऊधौ बाँधि लैहैं लंकनि लपेटि मृगछाला हू । कहै रतनाकर सु मेलि लैहैं छार अंग झेलि लैहैं ललकि घनेरे घाम पाला हू ।। तुम तौ कही औ अनकही कहि लीनी सबै अब जौ कहौ तौ कहैं कछु ब्रज-बाला हू । ब्रह्म मिलिबै तै कहा मिलबै बतावौ हमैं ताकौ फल जब लौं मिलै ना नन्दलाला हू ।।

72 साधिहि औ अराधिहैं सबै जो कहौ आधि-ब्याधि सकल स-साध सही लैहैं हम । कहै रतनाकर पै प्रेम-प्रन-पालन कौ नेम यह निपट सछेम निरबैहैं हम ।। जैहैं` प्रान-पट लै सरूप मनमोहन कौ तातैं ब्रह्म रावरे अनूप कौं मिलैहैं हम । जौपै मिल्यो तौ तौ धाइ चाय सौं मिलैंगी पर

जौ न मिल्यौ तौ पुनि इहाँ ही लौटि ऐहैं हम ।।

73 कान्ह हूँ सौं आन ही बिधान करिबै कौं ब्रह्म मधुपुरियान की चपल कंखियाँ चहैं । कहै रतनाकर हँसैं कै कहौ रोवैं अब गगन-अथाह-थाह लेन मखियाँ चहैं ।। अगुन-सगुन-फंद-बंद निरवारन कौं धारन कौं न्याय की नुकीली नखियाँ चहैं । मोर-पँखियाँ कौ मौर-वारौ चारू चाहन कौं ऊधौ अँखियाँ चहैं न मोर-पँखियाँ चहैं ।।

74 ढोंग जात्यौ ढरकि परकि डर सोग जात्यौ जोग जात्यौ सरकि स-कंप कँखियानि तैं । कहै रतनाकर न लेखते प्रपंच ऐंठि बैठि धरा लेखते कहूँधौं नखियानि तैं ।। रहते अदेख नाहिं बेष वह देखत हूँ देखत हमारी जान मोर पँखियानि तैं । ऊधौ ब्रह्म-ज्ञान कौ बखान करते न नैंकु देख लेते कान्ह जौ हमारी अँखियानि तैं ।

75

चाव सौं चलै हौ जोग-चरचा चलाइबै कौं चपल चितौनि तैं चुचात चित-चाह है । कहै रतनाकर पै पार ना बसैहै कछू

हेरत हिरैहै भर््यौ जो उर उछाह है ।। अंडे लौं टिटेहरी के जैहै जू बिबेक बहि फेरि लहिबे की ताके तनक न राह है । यह वह सिंधु नाहिं सोखि जो अगस्त लियौ ऊधौ यह गोपनि के प्रेम कौ प्रवाह है ।।

76 धरि राखौ ज्ञान गुन गौरव गुमान गोइ गोपिन कौं आवत न भावत भड़ंग है । कहै रतनाकर करत टायँ-टायँ बृथा सुनत न कोउ इहाँ यह मुहचंग है ।। और हूँ उपाय केते सहज सुढङ्ग ऊधौ साँस रोकिबै कौं कहा जोग ही कुढङ्ग है । कुटिल कटारी है अटारी है उतङ्ग अति जमुना-तरङ्ग है तिहारौ सतसङ्ग है ।।

77 प्रथम भुराइ चाय-नाय पै चढ़ाइ नीकैं न्यारी करी कान्ह कुल-कूल हितकारी तैं । प्रेम-रतनाकर की तरल तरंग पारि पलटि पराने पुनि प्रन-पतवारी तैं ।। और न प्रकार अब पार लहिबै कौ कछू अटकि रही हैं एक आस गुनवारी तैं । सोऊ तुम आइ बात बिषम चलाइ हाय काटन चहत जोग-कठिन कुठारी तैं ।।

78 प्रेम-पाल पलटि उलटि पतवारी-पति केवट परान्यौ कूब-तूँबरी अधार लै । कहै रतनाकर पठायौ तुम्है तापै पुनि लादन कौं जोग कौ अपार अति भार लै ।। निरगुन ब्रह्म कहौ रावरौ बनैहै कहा ऐहै कछु काम हूँ न लंगर लगार लै । विषम चलावौ ज्ञान-तपन-तपी ना बात पारी कान्ह तरनी हमारी मँझधार लै ।।

79 प्रथम भुराई प्रेम-पाठनि पढ़ाइ उन तन मन कीन्हें बिरहागि के तपेला हैं । कहै रतनाकर त्यौं आप अब तापै आइ साँसनि की साँसति के झारत झमेला हैं ।। ऐसे ऐसे सुभ उपदेस के दिवैयनि की उधौ ब्रजदेस मैं अपेल रेल-रेला हैं । वे तौ भए जोगी जाइ पाइ कूबरी कौ जोग आप कहैं उनके गुरू हैं किधौं चेला हैं ।।

80 एते दूरि देसनि सौं सखनि-संदेसनि सौं लखन चहैं जो दसा दुसह हमारी है । कहै रतनाकर पै बिषम बियोग-बिथा सबद-बिहीन भावना की भाववारी है ।। आनैं उर अंतर प्रतीति यह तातैं हम रीति नीति निपट भुजंगनि की न्यारी है । आँखिनि तैं एक तौ सुभाव सुनिबै कौ लियौ काननि तैं एक देखिबै की टेक धारी है ।।

81 दौनाचल कौ ना यह छटक्यौ कनूका जाहि छाइ छिगुनी पै छेम-छत्र छिति छायौ है । कहै रतनाकर न कूबर बधू -बर कौ जाहि रंच राँचै पानि परिस गँवायौ है ।। यह गरु प्रेमाचल दृढ़-व्रत-धारिनि-कौ जाकै भार भाव उनहूँ कौ सकुचायौ है । जानै कहा जानि कै अजान ह्वै सुजान कान्ह ताहि तुम्हैं बात सौं उड़ावन पठायौ है ।।

82 सुधि बुधि जाति उड़ी जिनकी उसाँसनि सौं तिनकौं पठायौ कहा धीर धरि पाती पर । कहै रतनाकर त्यौं बिरह-बलाय ढाइ मुहर लगाइ गए सुख-थिर-थाती पर ।। और जो कियौ सो कियौ ऊधौ पै न कोऊ बियौ ऐसी घात की घूनी करै जनम-सँघाती पर । कूबरी की पीठ तैं उतारि भार भारी तुम्हैं भेज्यौ ताहि थापन हमारी छीन छाती पर ।।

83 सुघर सलोने स्यामसुंदर सुजान कान्ह करुना-निधान के बसीठ बनि आए हौ । प्रेम-प्रनधारी गिरधारी को सनेसौ नाहिं होत है अँदेश झूठ बोलत बनाए हौ ।। ज्ञान-गुन गौरव-गुमान-भरे फूले फिरौ बंचक के काज पै न रंचक बराए हौ । रसिक-सिरौमनि कौ नाम बदनाम करौ मेरी जान ऊधौ कूर-कूबरी-पठाए हौ ।।

84 कान्ह कूबरी के हिय-हुलसे-सरोजनि तैं अमल अनन्द-मकरंद जो ढरारै है । कहै रतनाकर, यौं गोपी उर संचि ताहि तामैं पुनि आपनौ प्रपंच रंच पारै है ।। आइ निरगुन-गुन गाइ ब्रज मैं जो अब ताकौ उदगार ब्रह्मज्ञान-रस गारै है । मिलि सो तिहारौ मधु मधुप हमारैं नेह देह मैं अछेह बिष बिषम बगारै है ।।

85 सीता असगुन कौं कटाई नाक एक बेरि सोई करि कूब राधिका पै फेरि फाटी है । कहै रतनाकर परेखौ नाहिं याकौ नैंकु ताकी तौ सदा की यह पाकी परिपाटी है ।। सोच है यहै कै संग ताके रंगभौन माहिं कौन धौं अनोखौ ढंग रचत निराटी है । छाँटि देत कूबर कै आँटि देत डाँट कोऊ काटि देत खाट किधौं पाटि देत माटी है ।।

86 आए कंसराइ के पठाए वे प्रतच्छ तुम लागत अलच्छ कुबजा के पच्छवारे हौ । कहै रतनाकर बियोग लाइ लाई उन तुम जोग बात के बवंडर पसारे हौ ।। कोऊ अबलानि पै न ढरकि ढरारे होत मधुपुरवारे सब एके ढार ढारे हौ । लै गए अक्रूर क्रूर तन तैं छुड़ाइ हाय ऊधौ तुम मन तैं छुड़ावन पधारे हौ ।।

87 आए हौ अठाए वा छतीसे छलिया के इतै बीस बिसै ऊधौ बीरबावन कलाँच ह्वै । कहै रतनाकर प्रपञ्च ना पसारौ गाढ़े बाढ़े पै रहौगे साढ़े बाइस ही जाँच ह्वै ।। प्रेम अरु जोग मैं है जोग छठैं-आठैं पर््यौ एक ह्वै रहैं क्यौं दोऊ हीरा अरु काँच ह्वै । तीन गुन पाँच तत्त्व बहकि बतावत सो जैहै तीन-तेरह तिहारी तीन-पाँच ह्वै ।।

88 कंस के कहे सौं जदुबंस कौ बताइ उन्हैं तैसैं हीं प्रसंसि कुब्जा पै ललचायौ जौ । कहै रतनाकर ..मुष्टिक चनूर आदि …मल्लनि कौ ध्यान आनि हिय कसकायौ जौ ।। नंद जसुदा को सुखमूरि करि धूरि सबै गोपी ग्वाल गैयनि पै गाज लै गिरायौ जौ । होते कहूँ क्रूर तौ न जानैं करते धौं कहा ऐतौं क्रूर करम अक्रूर ह्वै कमायौ जौ ।।

89 चाहत निकारत तिन्हैं जो उर-अंतर तै ताकौ जोग नाहिं जोग-मंतर तिहारे मैं । कहै रतनाकर बिलग करिवे मैं होति नीति बिपरीत महा कहति पुकारे मैं ।। तातैं तिन्हैं ल्याइ लाइ हिय तैं हमारे बेगि, सोचियै उपाय फेरि चित्त चेतवारे मैं । ज्यौं-ज्यौं बसे जात दूरि-दूरि, प्रिय प्रान मूरि त्यौं-त्यौं धँसे जात मन-मुकुर हमारे मैं ।

90 ह्याँ तो ब्रजजीवन सौ जीवन हमारौ हाय जानै कौन जीवन लै उहाँ के जन जनमैं । कहै रतनाकर बतावत कछू कौ कछू ल्यावत न नैंकु हूँ बिबेक निज मन मैं ।। अच्छिनि उघारि ऊधौ करहु प्रतच्छ लच्छ इत पसु-पच्छिनि हूँ लाग है लगन मैं ।

काहू की न जीहा करै ब्रह्म की समीहा सुनौ पीहा-पीहा रटत पपीहा मधुबन मैं ।।

91 बाढ्यौ ब्रज पै जो ऋन, मधुपुर-बासनि कौ तासौं ना उपाय काहूँ भाय उमहन कौं । कहै रतनाकर बिचारत हुतीं हीं हम कोऊ सुभ जुक्ति तासौं मुक्त ह्वै रहन कौं ।। कीन्यौ उपकार दौरि दोउनि अपार ऊधौ सोई भूरि भार सौं उबारता लहन कौं । लै गयौ अक्रूर क्रूर, तब सुख-मूर कान्ह आए तुम आज प्रान-ब्याज उगहन कौं ।।

92 पुरतीं न जौपै मोर-चंद्रिका किरीट कान जुरतीं कहा न काँच किरचैं कुभाय की । कहै रतनाकर न भावते हमारे नैनों को वे तौ न कहा पावते कहूँधौं ठाँय पाय की ।। मान्यौ हम मान कै न मानती मनाऐं बेगि कीरति-कुमारी सुकुमारी चित-चाय की ।

याही सोच माहिं हम होतिं दूबरी कै कहा कूबरी हू होती ना पतोहू नन्दराय की ।।

93 हरि-तन-पानिप के भाजन दृगंचल तैं उमगि तपन तैं तपाक करि धावै ना । कहै रतनाकर त्रिलोक-ओक-मंडल मैं बेगि ब्रह्मद्रव उपद्रव मचावै ना ।। हर कौं समेत हर-गिरि के गुमान गारि पल मैं पतालपुर पैठन पठावै ना । पैलै बरसाने मैं न रावरी कहानी यह बानी कहूँ राधे आधे कान सुनि पावै ना ।।

94 आतुर न होहु ऊधौ आवति दिवारी अबै वैसियै पुरंदर-कृपा जौ लहि जाइगी । होत नर ब्रह्म-ज्ञान सौं बतावत जो कछु इहिं, नीति की प्रतीति गहि जाइगी ।। गिरिवर धारि जौ उबारि ब्रज लीन्यौ बलि तौ तौ भाँति काहूँ यह बात रहि जाइगी नातरु हमारी भारी बिरह-बलाय-संग सारी ब्रह्म-ज्ञानता तिहारी बहि जाइगी ।।

95 आवत दीवारी बिलखाइ ब्रज-वारी कहैं अबकै हमारैं गाँव गोधन पुजैहै को कहै रतनाकर बिबिध पकवान चाहि

चाह सौं सराहि चख चंचल चलैहै को ।। निपट निहोरि, जोरि हाथ निज साथ ऊधौ दमकति दिब्य दीपमालिका दिखैहै को । कूबरी के कूबर तैं उबरि न पावैं कान्ह इंद्र-कोप-लोपक गुबर्धन उठैहै को ।।

96 बिकसित बिपिन बसंतिकावली कौ रंग लखियत गोपिनि के अंग पियराने मैं । बोरै बृंद लसत रसाल-बर बारिनि के पिक की पुकार है चबाव उमगाने मैं ।। होत पतझार झार तरुनि-समूहनि कौ बैहरि बतास लै उसास अधिकाने मैं काम-बिधि बाम की कला मैं मीन-मेष कहा ऊधौ नित बसत बसंत बरसाने मैं ।।

97 ठाम-ठाम जीवन-बिहीन दीन दीसै सबै चलति चबाई-बात तापत घनी रहै । कहै रतनाकर न चैन दिन-रैन परै सूखी पत-छीन भई तरुनि अनी रहै ।। जार््यौ-अंग अब तौ बिधाता है इहाँ कौ भयौ तातैं ताहि जारन की ठसक ठनी रहै । बगर-बगर बृषभान के नगर नित भीषम-प्रभाव ऋतु ग्रीषम बनी रहै ।।

98 रहति सदाई हरियाई हिय घायनि मैं ऊरध उसास सो झकोर पुरवा की है । पीव-पीव गोपी पीर-पूरित पुकारति हैं सोई रतनाकर पुकार पपिहा की है ।। लागी रहै नैननि सौं नीर की झरी औ उठै चित मैं चमक सो चमक चपला की है । बिनु घनस्याम धाम-धाम ब्रज-मंडल मैं ऊधौ नित बसति बहार बरसा की है ।।

99 जात घनस्याम के ललात दृग-कंज-पाँति घेरी दिख-साध भौंर-भीर की अनी रहै । कहै रतनाकर बिरह-बिधु बाम भयौ चंद्रहास ताने घात घालत घनी रहै ।। सीत-घाम-बरषा-बिचार बिनु आने ब्रज पंचबान-बाननि की उमड़ ठनी रहै । काम बिधना सौं लहि फरद दवामी सदा दरद दिवैया ऋतु सरद बनी रहे ।।

100 रीते परे सकल निषंग कुसुमायुध के दूर दुरे कान्ह पै न तातें चलै चारौ है । कहै रतनाकर बिहाइ बर मानस कौं लीन्यौ है हुलास-हंस बास दूरिवारौ है ।। पाला परै आस पै न भावत बतास बारि जात कुम्हिलात हियौ कमल हमारौ है । षट ऋतु ह्वैहै कहूँ अनत दिगंतनि मैं इत तौ हिमंत कौ निरंतर पसारौ है ।।

101 काँप-काँपि उठत करेजौ कर चाँपि-चाँपि उर ब्रजबासिनि कैं ठिठुर ठनी रहै । कहै रतनाकर न जीवन सुहात रंच पाला की पटास परी आसनि घनी रहे ।। बारिनि मैं बिसद बिकास ना प्रकास करै अलिनि बिलास मैं उदासता सनी रहै । माधव के आवन की आवतिं न बातैं नैंकु नित प्रति तातें ऋतु सिसिर बनी रहे ।।

102 माने जब नैंकु ना मनाऐं मनमोहन के

तोपै मन-मोहिनि मनाए कहा मान तुमौ । कहै रतनाकर मलीन मकरी लौं नित आपुनौहीं जाल अपने हीं पर तानौ तुम ।। कबहूँ परै न नैन-नीर हूँ के फेर माहिं पैरिबौ सनेह-सिंधु माहिं कहा ठानौ तुम । जानत न ब्रह्म हूँ, प्रमानत अलच्छ ताहि तोपै भला प्रेम कौं प्रतच्छ कहा जानौ तुम ।।

103 हाल कहा बूझत बिहाल परीं बाल सबै बसि दिन द्वैक देखि दृगनि सिधाइयौ । रोग यह कठिन न उधौ कहिबे के जोग सूधौ सौ सँदेस याहि तू न ठहराइयौ ।।

औसर मिलै और सर-ताज कछु पूछहिं तौ कहियौ कछु न दसा देखी सो दिखाइयौ । आह के कराहि नैन नीर अवगाहि कछू कहिबै कौं चाहि हिचकी लै रहि जाइयौ ।।

104 नंद जसुदा औ गाय गोप गोपिका की कछू बात बृषभान-भौन हूँ की जनि कीजियौ । कहै रतनाकर कहतिं सब हा हा खाइ ह्याँ के परपंचनि सौं रंच न पसीजियौ ।। आँस भरि ऐहै और उदास मुख ह्वै है हाय ब्रज-दुख-त्रास की न तातैं साँस लीजियौ । नाम कौ बताइ औ जताइ गाम उधौ बस स्याम सौं हमारी राम-राम कहि दीजियौ ।।

105 ऊधौ यहै सूधौ सौ सँदेस कहि दीजौ एक जानति अनेक न बिबेक ब्रज-बारी हैं । कहै रतनाकर असीम रावरी तौ छमा छमता कहाँ लौं