89. राग ललित – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग ललित

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जागिए गोपाल लाल, आनँद-निधि नंद-बाल, जसुमति कहै बार-बार, भोर भयौ प्यारे ।

नैन कमल-दल बिसाल, प्रीति-बापिका-मराल, मदन ललित बदन उपर कोटि वारि डारे ॥

उगत अरुन बिगत सर्बरी, ससांक किरन-हीन, दीपक सु मलीन, छीन-दुति समूह तारे ।

मनौ ज्ञान घन प्रकास, बीते सब भव-बिलास, आस-त्रास-तिमिर तोष-तरनि-तेज जारे ॥

बोलत खग-निकर मुखर, मधुर होइ प्रतीति सुनौ, परम प्रान-जीवन-धन मेरे तुम बारे ।

मनौ बेद बंदीजन सूत-बृंद मागध-गन, बिरद बदत जै जै जै जैति कैटभारे ॥

बिकसत कमलावती, चले प्रपुंज-चंचरीक, गुंजत कल कोमल धुनि त्यागि कंज न्यारे ।

मानौ बैराग पाइ, सकल सोक-गृह बिहाइ, प्रेम-मत्त फिरत भृत्य, गुनत गुन तिहारे ॥

सुनत बचन प्रिय रसाल, जागे अतिसय दयाल , भागे जंजाल-जाल, दुख-कदंब टारे ।

त्यागे-भ्रम-फंद-द्वंद्व निरखि कै मुखारबिंद, सूरदास अति अनंद, मेटे मद भारे ॥

भावार्थ / अर्थ :– श्रीयशोदाजी बार-बार कहती हैं–‘गोपाललाल, जागो! आनन्द निधि प्यारे नन्दनन्दन! सबेरा हो गया । तुम्हारे नेत्र कमल-दल समान विशाल हैं, प्रेमरूपी काचली के ये हंस हैं, तुम्हारे सुन्दर मुखपर तो करोड़ों कामदेव न्यौछावर कर दिये । देखो, अरुणौदय हो रहा है, रात्रि बीत गयी, चन्द्रमाकी किरणें क्षीण हो गयीं, दीपक अत्यन्त (तेजहीन) हो गये, सभी तारोंका तेज घट गया; मानो ज्ञानका दृढ़ प्रकाश होनेसे संसारके सब भोग-विलास छूट गये, आशा और भयरूपी अन्धकार संतोषरूपी सूर्यकी किरणोंने भस्म कर दिया हो । पक्षियोंका समूह खुलकर मधुर स्वरमें बोल रहा है, इसे विश्वास करके सुनो । मेरे लाल! तुम तो मेरे परम प्राण और जीवनधन हो । (देखो पक्षियों का स्वर ऐसा लगता है) मानो बन्दीजन वेद-पाठ करतेहों, सूतवृन्द और मागधों का समूह, हे कैटभारि ! तुम्हारा सुयश गान करता है और बार-बार जय-जयकार कर रहा है । कमलोंका समूह खिलने लगा है, भ्रमरोंका झुंड सुन्दर कोमल स्वरसे गुंजार करता कमलोंको छोड़कर अलग चल पड़ा है । मानो वैराग्य पाकर समस्त शोक और घरको छोड़कर तुम्हारे सेवक तुम्हारा गुणगान करते प्रेममत्त घूम रहे हौं ।’ (माताके) प्यारे रसमय वचन सुनकर अत्यन्त दयालु प्रभु जग गये । ( उनके नेत्र खोलते ही जगत के) सब जंजालोंका फंदा दूर हो गया दुःखोंका समूह नष्ट हो गया । सूरदासने उनके मुखारविन्दका दर्शन करके अज्ञानके सब फंदे, सब द्वन्द्व त्याग दिये । अब मेरा भारी मद (अहंकार) प्रभुने मिटा दिया, मुझे अत्यन्त आनन्द हो रहा है ।

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प्रात भयौ, जागौ गोपाल ।

नवल सुंदरी आईं, बोलत तुमहि सबै ब्रजबाल ॥

प्रगट्यौ भानु, मंद भयौ उड़पति, फूले तरुन तमाल ।

दरसन कौं ठाढ़ी ब्रजवनिता, गूँथि कुसुम बनमाल ॥

मुखहि धौइ सुंदर बलिहारी, करहु कलेऊ लाल ।

सूरदास प्रभु आनँद के निधि, अंबुज-नैन बिसाल ॥

भावार्थ / अर्थ :– (मैया कहती हैं -) ‘हे गोपाल! सबेरा हो गया, अब जागो । व्रजकी सभी नवयुवती सुन्दरी गोपियाँ तुम्हें पुकारती हुई आ गयी हैं । सूर्योदय हो गया, चन्द्रमाका प्रकाश क्षीण हो गया, तमालके तरुण वृक्ष फूल उठे, व्रजकी गोपियाँ फूलों की वनमाला गूँथकर तुम्हारे दर्शनके लिये खड़ी हैं । मेरे लाल! अपने सुन्दर मुख को धोकर कलेऊ करो, मैं तुमपर बलिहारी हूँ ।’ सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी कमलके समान विशाल लोचनवाले तथा आनन्दकी निधि हैं । (उनकी निद्रामें भी अद्भुत शोभा और आनन्दहै ।)

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जागौ, जागौ हो गोपाल ।

नाहिन इतौ सोइयत सुनि सुत, प्रात परम सुचि काल ॥

फिरि-फिरि जात निरखि मुख छिन-छिन, सब गोपनि बाल ।

बिन बिकसे कल कमल-कोष तैं मनु मधुपनि की माल ॥

जो तुम मोहि न पत्याहु सूर-प्रभु, सुन्दर स्याम तमाल ।

तौ तुमहीं देखौ आपुन तजि निद्रा नैन बिसाल ॥

सूरदासजी कहते हैंकि (मैया मोहनको जगा रही हैं-)’जागो ! जागो गोपाललाल ! प्यारे पुत्र ! सुनो, सबेरेका समय बड़ा पवित्र होता है, इतने समय तक सोया नहीं जाता । क्षण-क्षणमें (बार-बार) तुम्हारे मुखको देखकर सभी ग्वाल-बाल लौट-लौट जाते हैं (तुम्हारे सब सखा जाग गये हैं )। ऐसा लगता है जैसे बिना खिले सुन्दर कमल-कोष से भौंरों की पंक्ति लौट लौट जाती हो । तमालके समान श्याम वर्णवाले मेरे सुन्दर लाल! यदि तुम मेरा विश्वास न करते हो तो नींद छोड़कर अपने बड़े-बड़े नेत्रौंसे स्वयं तुम्हीं (इस अद्भुत बातको) देख लो ।’