40. राग धनाश्री – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग धनाश्री

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किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।

मनिमय कनक नंद कै आँगन, बिंब पकरिबैं धावत ॥

कबहुँ निरखि हरि आपु छाहँ कौं, कर सौं पकरन चाहत ।

किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ॥

कनक-भूमि पद कर-पग-छाया, यह उपमा इक राजति ।

करि-करि प्रतिपद प्रति मनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ॥

बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति ।

अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति ॥

भावार्थ / अर्थ :– कन्हाई किलकारी मारता घुटनों चलता आ रहा है । श्रीनन्दजी के मणिमय आँगनमें वह अपना प्रतिबिम्ब पकड़ने दौड़ रहा है । श्याम कभी अपने प्रतिबिम्बको देख कर उसे हाथसे पकड़ना चाहता है । किलकारी मारकर हँसते समय उसकी दोनों दँतुलियाँ बहुत शोभा देती हैं, वह बार-बार उसी (प्रतिबिम्ब) को पकड़ना चाहता है । स्वर्णभूमिपर हाथ और चरणोंकी छाया ऐसी पड़ती है कि यह एक उपमा (उसके लिये) शोभा देनेवाली है कि मानो पृथ्वी (मोहनके) प्रत्येक पदपर प्रत्येक मणिमें कमल प्रकट करके उसके लिये (बैठनेको) आसन सजाती है । बालविनोद के आनन्दको देखकर माता यशोदा बार-बार श्रीनन्दजी को वहाँ (वह आनन्द देखनेके लिये) बुलाती हैं । सूरदासके स्वामीको (मैया) अञ्चलके नीचे लेकर ढककर दूध पिलाती हैं ।

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