169. राग बिहागरौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग बिहागरौ

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कुँवर जल लोचन भरि-भरि लेत ।

बालक-बदन बिलोकि जसोदा, कत रिस करति अचेत ॥

छोरि उदर तैं दुसह दाँवरी, डारि कठिन कर बेंत ।

कहि धौं री तोहि क्यौं करि आवै, सिसु पर तामस एत ॥

मुख आँसू अरु माखन-कनुका, निरखि नैन छबि देत ।

मानौ स्रवत सुधानिधि मोती, उडुगन-अवलि समेत ॥

ना जानौं किहिं पुन्य प्रगट भए इहिं ब्रज नंद -निकेत ।

तन-मन-धन न्यौछावर कीजै सूर स्याम कैं हेत ॥

भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं – (गोपी कह रही है -) ‘कुँवर कन्हाई बार-बार नेत्रोंमें आँसू भर लेता है (रो रहा है) यशोदाजी ! अपने बालका मुख तो देखो, (इस प्रकार) बुद्धि खोकर क्रोध क्यों कर रही हो ? दुःसह (पीड़ादायिनी) रस्सी इसके पेट (कमर) मेंसे खोल दो और हाथसे कठोर बेंत डालदो (अलग रख दो) । अरी! बताओ तो, तुमसे नन्हें बच्चेपर इतना क्रोध कैसे किया जाता है ? मोहन के मुखपर आँसू ढुलक रहे हैं और मक्खनके कुछ कण लगे हैं; नेत्रोंसे देखनेपर यह ऐसी शोभा देता है मानो चन्द्रमा तारागणोंके झुंडके साथ मोती टपका रहा है । पता नहीं किस पुण्यसे इस व्रज में नन्दभवनमें यह प्रकट हुआ है; इस श्यामसुन्दरके लिये तो तन, मन, धन-सब न्यौछावर कर देना चाहिये ।’