167. राग बिहागरौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग बिहागरौ

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देखौ माई कान्ह हिलकियनि रोवै !

इतनक मुख माखन लपटान्यौ, डरनि आँसुवनि धोवै ॥

माखन लागि उलूखल बाँध्यौ, सकल लोग ब्रज जोवै ।

निरखि कुरुख उन बालनि की दिस, लाजनि अँखियनि गोवै ॥

ग्वाल कहैं धनि जननि हमारी, सुकर सुभि नित नोवै ।

बरबस हीं बैठारि गोद मैं, धारैं बदन निचोवै ॥

ग्वालि कहैं या गोरस कारन, कत सुतकी पति खोवै ?

आनि देहिं अपने घर तैं हम, चाहति जितौ जसोवै ॥

जब-जब बंधन छौर््यौ चाहतिं, सूर कहै यह को वै ।

मन माधौ तन, चित गोरस मैं, इहिं बिधि महरि बिलोवै ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपियाँ परस्पर कहती हैं -) ‘देखो तो खी, कन्हाई हिचकी ले-लेकर रो रहा है । छोटे-से मुखमें मक्खन लिपटा है, जिसे भयके कारण आँसुओंसे धो रहा है ।’ मक्खनके कारण ऊखलसे बाँधा गया मोहन व्रजके सब लोगोंकी ओर देख रहा है । फिर उन गोपियोंकी ओर कठोर दृष्टि से देखकर वह लज्जासे आँखे छिपा रहा है । गोप-बालक कहते हैं, ‘हमारी माताएँ धन्य हैं, जो प्रतिदिन अपने हाथों ही गायोंको नोती (उनके पिछले पैरोंमें रस्सी बाँधती) हैं, फिर आग्रहपूर्वक पकड़कर हमें गोदमें बैठाकर हमारे मुखमें (दूधकी) धार निचोड़ती (दुहती) हैं । गोपियाँ कहती हैं -‘इस गोरसके लिये तुम पुत्रका सम्मान क्यों नष्ट करती हो? यशोदाजी !तुम जितना चाहती हो (बताओ) हम अपने घरों से लाकर दे दें ।’ सूरदासजी कहते हैं कि जब-जब (कोई गोपी) बन्धन खोलना चाहती है, तभी व्रजरानी कहती हैं-‘यह कौन है? व्रजेश्वरी इस प्रकार दधि-मन्धन कर रही हैं कि उनका मन तो श्यामसुन्दरकी ओर है और ध्यान गोरस में लगा है ।

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