142. राग नटनारायन – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग नटनारायन

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मेरे लाड़िले हो! तुम जाउ न कहूँ ।

तेरेही काजैं गोपाल, सुनहु लाड़िले लाल , राखे हैं भाजन भरि सुरस छहूँ ॥

काहे कौं पराएँ जाइ करत इते उपाइ, दूध-दही-घृत अरु माखन तहूँ ।

करति कछु न कानि, बकति हैं कटु बानि, निपट निलज बैन बिलखि सहूँ ॥

ब्रज की ढीठी गुवारि, हाट की बेचनहारि, सकुचैं न देत गारि झगरत हूँ ।

कहाँ लगि सहौं रिस, बकत भई हौं कृस, इहिं मिस सूर स्याम-बदन चहूँ ॥

भावार्थ / अर्थ :– ‘मेरे लाड़िले ! तुम कहीं मत जाया करो । दुलारे लाल! सुनो । मेरे गोपाल तुम्हारे लिये ही छहों रसोंसे भरे बर्तन मैंने सजा रखे हैं । दूसरेके घर जाकर तुम इतने उपाय क्यों करते हो ? (अन्ततः) वहाँ भी (तो) दूध, दही, घी और मक्खन ही रहता है (तुम्हारे घर इनकी कमी थोड़े ही है)। ये गोपियाँ तो कुछ भी मर्यादा नहीं रखतीं, कठोर बातें बकती हैं, इनके अत्यन्त निर्लज्जता भरे बोल मैं कष्ट से सहती हूँ ये व्रजकी गोपियाँ बड़ी ढीठ हैं, ये हैं ही बाजारोंमें (घूम-घूमकर दही बेचनेवाली । ये गाली देनेमें और झगड़ा करने में भी संकोच नहीं करतीं । मैं कहाँतक क्रोधको सहन करूँ, बकते-बकते (तुम्हें समझाते -समझाते) तो मैं दुबली हो गयी (थक गयी)!’ सूरदासजी कहते हैं– यशोदाजी चाहती हैं कि (यदि श्यामसुन्दर घर-घर भटकना छोड़ दें तो) इसी बहाने लालका श्रीमुख देखती रहूँ ।

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