150. राग नटनारायन – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग नटनारायन

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लोगनि कहत झुकति तू बौरी ।

दधि माखन गाँठी दै राखति, करत फिरत सुत चोरी ॥

जाके घर की हानि होति नित, सो नहिं आनि कहै री ।

जाति-पाँति के लोग न देखति और बसैहै नैरी ॥

घर-घर कान्ह खान कौ डोलत, बड़ी कृपन तू है री ।

सूर स्याम कौं जब जोइ भावै, सोइ तबहीं तू दै री ॥

भावार्थ / अर्थ :– सूरदासजी कहते हैं -(कोई गोपी व्रजरानी से कहती है-)’लोगोंके कहनेसे तुम पगली होकर खीझती हो! अपना दही-मक्खन तो गाँठ बाँधकर (छिपाकर) रखती हो और पुत्र चोरी करता घूमता है । जिसके घरकी प्रतिदिन हानि होती है, वह आकर कहेगा नहीं ? अपने जाति-पाँति के लोगोंको देखती नहीं हो ( उनका संकोच न करके उन्हें डाँटती हो, वे गाँव छोड़कर चले जायँगे तो) क्या दूसरे नये लोगोंको बसाओगी? तुम तो बड़ी कृपण हो (तभी तो) कन्हाई भोजन के लिये घर-घर घूमता है । श्यामसुन्दर जब जो रुचे, वही तुम उसे उसी समय दिया करो ।’