139. राग कान्हरौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग कान्हरौ

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अब ये झूठहु बोलत लोग ।

पाँच बरष अरु कछुक दिननिकौ, कब भयौ चोरी जोग ॥

इहिं मिस देखन आवतिं ग्वालिनि, मुँह फाटे जु गँवारि ।

अनदोषे कौं दोष लगावतिं, दई देइगौ टारि ॥

कैसैं करि याकी भुज पहुँची, कौन बेग ह्याँ आयौ ?

ऊखल ऊपर आनि पीठ दै, तापर सखा चढ़ायौ ॥

जौ न पत्याहु चलौ सँग जसुमति, देखौ नैन निहारि ।

सूरदास-प्रभु नैकु न बरज्यौ, मन मैं महरि बिचारि ॥

भावार्थ / अर्थ :– (श्रीयशोदाजी कहती हैं-) ‘अब ये लोग झूठ भी बोलने लगे: मेरा बच्चा अभी (कुल) पाँच वर्ष और कुछ दिनोंका (तो) हुआ ही है, वह चोरी करने योग्य हो गया? ये मुँहफट गँवार गोपियाँ इसी बहाने (मेरे मोहनको) देखने आती है और मेरे दोषहीन लालको दोष लगाती हैं । दैव स्वयं इस कलंकको मिटा देगा । भला, इस (श्याम) का हाथ वहाँ (छींकेतक) कैसे पहुँच गया ( और यदि यह इस गोपीके घर गया था तो गोपीसे पहले) किस बलसे यहाँ आ गया (इतना शीघ्र वहाँ से आना तो सम्भव नहीं है ) ।’ (गोपी बोली-) ‘ऊखलके ऊपर इसने लाकर पीढ़ा रखा और उसपर एक सखाको चढ़ाया (और उस सखाके कंधेपर स्वयं चढ़ गया -) यशोदाजी ! यदि आप मेरा विश्वास नहीं करतीं तो मेरे साथ चलें, स्वयं अपनी आँखों से (मेरे घरकी दशा भली प्रकार) देख लें ।’ सूरदासजी कहते हैं कि (इतने पर भी) व्रजरानी अपने मनमें विचार करती रहीं; उन्होंने मेरे स्वामीको तनिक भी डाँटा (रोका) नहीं ।

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