113. राग केदारौ – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग केदारौ

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पौढ़िऐ मैं रचि सेज बिछाई ।

अति उज्ज्वल है सेज तुम्हारी, सोवत मैं सुखदाई ॥

खेलत तुम निसि अधिक गई, सुत, नैननि नींद झँपाई ।

बदन जँभात अंग ऐंडावत, जननि पलोटति पाई ॥

मधुरैं सुर गावत केदारौ, सुनत स्याम चित लाई ।

सूरदास प्रभु नंद-सुवन कौं नींद गई तब आई ॥

भावार्थ / अर्थ :– (रात्रि हो जाने पर माता कहती हैं)- ‘लाल ! मैंने खूब सजाकर तुम्हारी पलंग बिछा दी है, अब तुम लेट जाओ । तुम्हारी पलंग अत्यन्त उज्ज्वल है और सोने में सुखदायक है । तुम्हे खेलते हुए अधिक रात्रि बीत गयी । लाल! अब तुम्हारे नेत्र निद्रासे झपक रहे हैं ।’श्यामसुन्दर मुखसे जम्हाई लेते हैं, शरीर से अँगड़ाई लेते हैं माता उनके पैर दबा रही हैं तथा मधुर स्वरमें केदारा राग गा रही हैं, श्याम सुन्दर चित्त लगाकर सुन रहे हैं । सूरदासजी कहते हैं कि तब नन्दनन्दन को निद्रा आ गयी ।

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