राग सोरठ
[134]
…………$
सो सुख नंद भाग्य तैं पायौ ।
जो सुख ब्रह्मादिक कौं नाहीं, सोई जसुमति गोद खिलायौ ॥
सोइ सुख सुरभि-बच्छ बृंदाबन, सोइ सुख ग्वालनि टेरि बुलायौ ।
सोइ सुख जमुना-कूल-कदंब चढ़ि, कोप कियौ काली गहि ल्यायौ ॥
सुख-ही सुख डोलत कुंजनि मैं, सब सुख निधि बन तैं ब्रज आयौ ।
सूरदास-प्रभु सुख-सागर अति, सोइ सुख सेस सहस मुख गायौ ॥
भावार्थ / अर्थ :– सौभाग्यसे श्रीनन्दजी ने उस आनन्दघनको प्राप्त कर लिया है, जो आनन्दस्वरूप ब्रह्मा दिकों को भी प्राप्त नहीं होता; किंतु (यहाँ गोकुलमे तो ) उसीको मैया यशोदा गोदमें लेकर खेलाती हैं । (इतना ही नहीं,) वही सुखस्वरूप गायों और बछड़ों के साथ वृन्दावन में जाता है, वही सुख-निधि गोपकुमारोंको पुकारबुलाता है, वही आनन्दघन यमुना-किनारे कदम्बपर चढ़ा और क्रोध करके (हृद में कूदकर) कालियनागको पकड़ लाया ! वह तो आनन्द-ही-आनन्द उड़ेलता कुञ्जोंमें घूमता है, समस्त सुखों की राशि वह (सायंकाल) वनसे व्रज में आया । सूरदासका वह स्वामी तो सुखोंका महान् समुद्र है, शेषजी अपने सहस्र मुखों से उस सुखस्वरूप का ही गुणगान करते हैं ।