176. राग नटनारायनी – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग नटनारायनी

[242]

……………

देखि री देखि हरि बिलखात ।

अजिर लोटत राखि जसुमति, धूरि-धूसर गात ॥

मूँदि मुख छिन सुसुकि रोवत, छिनक मौन रहात ।

कमल मधि अलि उड़त सकुचत, पच्छ दल-आघात ॥

चपल दृग, पल भरे अँसुआ, कछुक ढरि-ढरि जात ।

अलप जल पर सीप द्वै लखि, मीन मनु अकुलात ॥

लकुट कैं डर ताकि तोहि तब पीत पट लपटात ।

सूर-प्रभु पर वारियै ज्यौं, भलेहिं माखन खात ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपी कह रही है -) ‘देखो सखी, देखो तो श्यामसुन्दर क्रन्दन कर रहे हैं। यशोदाजी इन्हें आँगनमें लोटनेसे बचाओ । (देखो न ) इनका शरीर धूलसे मटमेला हो रहा है कभी कुछ क्षण मुख ढँककर सिसकारी लेकर रोते हैं, कभी क्षणभर चुप हो जाते हैं । इनकी ऐसी शोभा हो रही है मानो कमलपरसे भौंरे उड़ना चाहते हों किंतु पंखकी चोट कहीं दलों को न लगे, इससे संकुचित हो रहे हैं । नेत्र चञ्चल हैं, पलकें आँसूसे भरी हैं, जिनकी कुछ बूँदे बार-बार ढुलक पड़ती हैं मानो थोड़े जलके ऊपर दो सीप देखकर मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं । जब छड़ीके भयसे तुम्हारी ओर देखते हैं, तब पीताम्बरमें लिपट जाते (संकुचित हो जाते) हैं ।’ सूरदासजी कहते -‘मेरे इन स्वामीपर तो प्राण न्योछावर कर देना चाहिये । ये (मक्खन खाते हैं तो भले ही खायँ (इनपर रोष करना तो अनुचित ही है ) ।’