राग धनाश्री
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चितै धौं कमल-नैन की ओर ।
कोटि चंद वारौं मुखछबि पर, ए हैं साहु कै चोर ॥
उज्ज्वल अरुन असित दीसति हैं, दुहु नैननि की कोर ।
मानौ सुधा-पान कें कारन , बैठे निकट चकोर ॥
कतहिं रिसाति जसोदा इन सौं, कौन ज्ञान है तोर ।
सूर स्याम बालक मनमोहन, नाहिन तरुन किसोर ॥
सूरदासजी कहते हैं–(कोई गोपी समझा रही है -)’कमल-लोचनकी ओर देखो तो ! ये चाहे साह (चोरी न करनेवाले) हों या चोर हों, इनके मुखकी शोभापर करोड़ों चन्द्रको न्योछावर कर दूँ । इनके नेत्रोंके किनारे उज्ज्वल, श्याम तथा अरुण दीख पड़ रहे हैं, मानो चकोर (इस मुखचन्द्रका) अमृत पीने के लिये पास बैठे हों । यशोदाजी ! इनपर क्यों क्रोध करती हो ? यह तुम्हारी कौन-सी समझदारी है ? अरे श्यामसुन्दर अभी मन मोहन बालक हैं, कोई तरुण या किशोर तो हैं नहीं ।’