174. राग बिलावल – श्रीकृष्ण बाल-माधुरी

राग बिलावल

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जसुदा ! देखि सुत की ओर ।

बाल बैस रसाल पर रिस, इती कहा कठोर ॥

बार-बार निहारि तुव तन, नमित-मुख दधि -चोर ।

तरनि-किरनहिं परसि मानो, कुमुद सकुचत भोर ॥

त्रास तैं अति चपल गोलक, सजल सोभित छोर ।

मीन मानौ बेधि बंसी, करत जल झकझोर ॥

देत छबि अति गिरत उर पर, अंबु-कन कै जोर ।

ललित हिय जनु मुक्त-माला, गिरति टूटैं डोर ॥

नंद-नंदन जगत-बंदन करत आँसू कोर ।

दास सूरज मोहि सुख-हित निरखि नंदकिसोर ॥

भावार्थ / अर्थ :– (गोपी कहती है-) ‘यशोदाजी! (तनिक) पुत्रकी ओर (तो) देखो । इस रसमयी (खेलनेयोग्य) अवस्थाके बालक पर इतना कठोर क्रोध क्या (उचित है)? यह दही-चोर, बार-बार तुम्हारी ओर देखकर मुख झुका लेता है मानो प्रातःकाल सूर्यका स्पर्श होनेसे कुमुदिनी संकुचित हो गयी हो । भयके कारण नेत्र अत्यन्त चञ्चल हो रहे हैं, मानो (दो) मछलियोंको बंशीमें फँसाकर जलमें हिलाया जा रहा हो । वक्षःस्थलपर वेगपूर्वक गिरती आँसूकी बूँदें अत्यन्त शोभा दे रही हैं, मानो सुन्दर हृदयपर (धारण की हुई) मोतियोंकी माला ही तागेके टूट जानेसे गिर रही हो । जगत् के वन्दनीय श्री नन्दनन्दन आज आँखोंके कोनोंमें आँसू भर रहे हैं ।’ सूरदासजी कहते -‘मुझे आनन्द देनेके लिये नन्दलाल ! अपने इस दासकी ओर (एकबार) देख तो लो ।’